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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) ४१३ में आया? वस्तु ही ऐसी है, वहाँ उसमें की किसने है ? वस्तु ही ऐसी अनादि की चीज है। समझ में आया? चन्द्रमा के समान है। लो! यह उसी आत्मानुभव के सतत अभ्यास से पाँचवें गुणस्थान के योग्य.... आगे बढ़ जाता है - ऐसा कहते हैं। आत्मानुभव को ही धर्मध्यान कहते हैं। धर्मध्यान कोई दूसरी चीज नहीं है। आत्मानुभव, वह धर्मध्यान है। धर्म अर्थात् त्रिकाली स्वभाव, उसका ध्यान – एकाग्रता (होना), वह तो आत्मा का अनुभव, धर्म, वह धर्मध्यान है। दूसरे कहते हैं, शुभयोग, धर्मध्यान है । अरे... ! भगवान ! अद्भुत बात। __एक बार नहीं कहा था? भद्र, पण्डितजी! पण्डितजी को पता है। (एक व्यक्ति कहता था) सम्यक्त्वी को धर्मध्यान नहीं है, भद्र ध्यान है। वह कहा था न? परन्तु भद्र भले आवे परन्तु उसका अर्थ क्या? ऐसा नहीं। वह तो भद्र अर्थात् सरल – सीधा ध्यान। धर्मध्यान उग्ररूप से वह शुक्लध्यान है। यह अभी एकदम उग्र नहीं है। आहा...हा...! शुक्लध्यान, ऐसा लिखा है और कषाय मल अधिक दूर.... होने से शुक्लध्यान होता है। यह मोक्षमार्ग वर्तमान में भी.... अपने सार-सार लेते हैं, (बाकी दूसरा) बहुत अधिक लिखा है। भविष्य में अनन्त सुख का कारण है। मोक्षमार्ग तो वर्तमान आनन्द है। आनन्द है, दुःख कैसा? सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र जो स्वभाव पूर्ण है, उसकी दृष्टि, उसका ज्ञान, और रमणता, यह तीनों आनन्दमूर्ति हैं। सम्यग्दर्शन, आनन्दरूप है; ज्ञान, आनन्दरूप है और चारित्र, आनन्दरूप है। मोक्षमार्ग वर्तमान आनन्ददाता है (और) भविष्य में पूर्ण आनन्द का दाता है। समझ में आया? अनन्त सुख का कारण है। मुमुक्षु को व्यवहार धर्म का बाह्य... यह कुछ नहीं, इसमें गड़बड़ है। थोड़ी गड़बड़ कहीं डाल देते हैं । निमित्त की तो गड़बड़ डाल देते हैं। निमित्त है न ! लो ! अब अन्तिम श्लोक, अन्तिम श्लोक, लो! आज पूरा होता है। ज्येष्ठ कृष्ण ३ से शुरु किया था। चिमनभाई के वास्तु में, शान्तिभाई तुम्हारे (वहाँ) वास्तु था न, उस दिन ज्येष्ठ कृष्ण ३, वार सोमवार था न? सोमवार, ज्येष्ठ कृष्ण ३ सोमवार को वहाँ शुरु किया था। वास्तु (था), नया मकान (बनाया)। आज अब पूरा होता है।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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