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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) ३९५ हमारे लिए कठिन है और वैसा होने पर भी यदि कहें कि बुद्धदेव का अभिप्राय दूसरा था तो उसे कारणपूर्वक कहने से प्रमाणभूत न हो, ऐसा कुछ नहीं है। लाओ दूसरा अभिप्राय क्या था? वह लाओ। मोक्ष उन्हें है नहीं। मोक्ष कहाँ से लावे? इस जगत में बहुत बढ़ जाये, यह मान्यता करोड़ों अरबों में (होवे), इसलिए उत्कृष्ट है, बड़ा है – ऐसा किसने कहा? समझ में आया? इनकी बहुत मान्यता है न ! चीन, और सर्वत्र बहुत है परन्तु क्या है ? साधारण बात की है। यह सर्वज्ञ परमेश्वर ने कहा हुआ जिसे बोध-ज्ञान जहाँ हो, उसे बौद्ध कहा जाता है। आहा...हा... ! देखो! कहा है या नहीं इनने? बुद्ध सो जिणु उसे जिन कहते हैं, ऐसे आत्मा को जिन कहते हैं। वैसे तो जिन नाम धरानेवाले बहुत निकले, उसे ईसरु कहते हैं, उसे ईश्वर कहते हैं। पूर्ण शक्तिवाला ऐसा नाम उसे ईश्वर कहते हैं। समझ में आया? ब्रह्मा कहा है न? फिर है बंभुलो! सत्य ब्रह्मा, क्योंकि अविनाशी परम ऐश्वर्य का धारी वही परमात्मा है, जो परमकृतकृत्य व सन्तोषी है। सर्व प्रकार की इच्छा से रहित है। वही परमात्मा सच्चा ब्रह्मा है.... है न? 'बंभु' क्योंकि वह ब्रह्मस्वरूप में लीन है। भगवान आत्मा आनन्द-अतीन्द्रिय आनन्दस्वरूप में लीन है, उसे ब्रह्म कहते हैं। समझ में आया? यथार्थ धर्म का स्वरूप, उपाय बतलाता है, अथवा धर्म का कर्ता है, इसलिए ब्रह्मा है। दूसरे कहते हैं न ईश्वर को कर्ता.... परन्तु अपने स्वरूप का कर्ता इसलिए ब्रह्मा। उसे 'बंभु' (कहते हैं।) लो, ऐसे अनन्त नाम लेना, अनन्त नाम लेना। हजारों नाम लेकर भावना करनेवाला भावना कर सकता है। नाम लेना वह तो निमित्त है। परन्तु उसका स्वरूप जो आत्मा का है, उस प्रकार लक्ष्य में लेकर ध्यान करने का नाम वास्तव में ध्यान और संवर-निर्जरा है। नाम तो विकल्प है, कोई भी नाम लें, नाम लक्ष्य में लें तो विकल्प है। समझ में आया? फिर दृष्टान्त दिया है। जैसे निर्मल क्षीर समुद्र में निर्मल तरंगें ही उत्पन्न होती हैं, वैसे शुद्धात्मा में सर्व परिणम अथवा वर्तन शुद्ध ही होता है। भगवान, ईश्वर, परमात्मा, ब्रह्मा आदि कहा आत्मा; उसका पूर्ण स्वरूप प्रगट होने पर स्वयं जब द्रव्य, गुण जब अपने शुद्ध और पूर्ण हैं, क्षीरसागर से भरा हुआ क्षीर सागर जब दूध से भरा हुआ है तो उसकी तरंगें भी दूध से भरी हुई हो सकती हैं । तरंगें -
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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