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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - २ ) भगवान आत्मा अनादि काल से राग-द्वेष की, अनन्तानुबन्धी की तीव्रता के परिणाम में.... आचरण था, तब श्रद्धा, मिथ्या, ज्ञान मिथ्या, और आचरण मिथ्या था । ऐसा भगवान आत्मा अपने शुद्धस्वरूप का आचरण, दृष्टि हुई, तब प्रतीति हुई, तब ज्ञान हुआ कि यह आत्मा है, तब स्वरूप के आचरण का अंश जगा, कणिका जगी । समझ में आया ? आत्मस्वरूप के आचरण की कणिका जगी । पूर्ण आचरण की दशा यथाख्यातचारित्र (है)। समझ में आया ? उसका अंश चारित्र यदि चौथे में प्रगट न हो तो आगे वह बढ़ नहीं सकता। समझ में आया ? ३७७ अरे... ! तत्त्व के निर्णय का विषय होना चाहिए और वह भी समभाव से, शान्ति से वीतरागी चर्चा होना चाहिए। उसके बदले एक दूसरे को झूठा ठहरने की बात - ऐसा नहीं होता, भाई ! समझ में आया? यह तो वीतरागी चर्चा है, समभाव से चाहिए। किसी की भूल हो तो भी उसे दूसरे प्रकार से और द्वेषी मानकर या विरोधी मानकर उसे कहना यह कोई सज्जनता की रीत है ? होता है, यह वीतरागमार्ग है भाई ! इसमें तो शान्ति से, न्याय से जैसे हो वैसे निर्णय करना चाहिए। जो सत्य निकले, उसे स्वीकार करना चाहिए, उसमें कहाँ यह किसी के पक्ष की बात है । यह बात देखो... भाई ने लिखी है - टोडरमलजी ने और भाई ने लिखी है। गोपालदासजी वरैया ने। जैन सिद्धान्त प्रवेशिका और राजमलजी ने टीका में लिखी है और भाई ने लिखी है - समयसार नाटक में लिखा है परन्तु होता है न ? जहाँ आत्मा स्वरूप पूर्णानन्द प्रभु भासित हुआ, वहाँ उसमें स्थिरता का अंश न आवे तो स्थिरता के बिना यह क्या चीज है (— उसकी ) एकदम श्रद्धा हो गयी ? परन्तु श्रद्धा के साथ में ज्ञान में कुछ हुआ है या नहीं ? स्थिरता के बिना... तीनों के अंश आये हैं या नहीं साथ में ? समझ में आया ? वास्तव में सम्यग्दर्शन तो 'सर्व गुणांश वह समकित ' है। भगवान अनन्त गुण का पिण्ड प्रभु है, उसकी प्रतीति नहीं थी, ज्ञान - ज्ञायकपने की उसे (प्रतीति नहीं थी ) ; उसे प्रतीति थी राग-द्वेष-विकार और परसत्ता के स्वीकार में । है स्वयं इसलिए कहीं उसका अस्तित्व तो स्वीकारना चाहिए, इसलिए उसका अस्तित्व यह (स्वरूप) भासित नहीं
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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