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________________ ३५८ गाथा-१०० पद्मिनी जैसी मिली, पैसे मिले तो सुख भासित होता है। कैसा होगा, मूलचन्दभाई ! इन पैसेवालों को पूछते हैं ? धीरुभाई! पागल के अस्पताल में, पागल, पागल को चतुर कहता है। हैं ? पागल का अस्पताल होता है.... आहा...हा...! पागलपना अर्थात् ? जहाँ आत्मा में आनन्द है, वहाँ न मानकर अन्यत्र आनन्द माने, वह मिथ्यादृष्टि पागल है। आहा...हा... ! समाधिशतक में तो पूज्यपादस्वामी ने वहाँ तक लिया है कि दृष्टि का भान है, फिर भी विकल्प ऐसा होता है कि मैं इसे समझाऊँ, उससे समझेगा; मैं उससे समझें... कहते हैं कि पागल है विकल्प में । समाधिशतक में कहा है, वह पागल-उन्माद है । उन्माद है। भाई ! कहाँ ज्ञानमूर्ति प्रभु में पर की विस्मता की होंश और प्रतिकूलता से खेद यह वस्तु में नहीं है और उस चीज में भी नहीं है। वे चीजें जो हैं, उनमें होश करने की वृत्ति का कारण वे नहीं है। शोक करने का कारण वे नहीं है और होश तथा शोक करने की चीज आत्मा में भी नहीं है; पर्याय में खड़ी करता है। पर्यायदृष्टिवाला यह सुख, यहाँ सुख है, यहाँ सुख (है ऐसी वृत्ति खड़ी करता है)। सम्यग्दृष्टि की दृष्टि पलट गयी है। पर में ठीकपने की होश की श्रद्धा जल गयी है। आहा...हा... ! समझ में आया? उसे अतीन्द्रिय आत्मिक आनन्द की गाढ़ श्रद्धा होती है। वह एकमात्र सिद्धदशा का ही प्रेमी रहता है। मेरी दशा, जैसा दशावान हूँ, वैसी दशा हो, वही भावनावाला सम्यक्त्वी है । यह राग की भावना और अल्पज्ञ रहने की भावना नहीं होती। सर्वज्ञ कैसे वीतराग हुए और सर्वज्ञ हुए? वह अल्पज्ञ और राग में क्यों नहीं रहे? उन्होंने अल्पज्ञता और राग का अभाव करके सर्वज्ञ वीतराग हुए। उनके उपदेश में भी यह आया, अल्पज्ञता और राग की दृष्टि छोड़ और सर्वज्ञ स्वभाव की दृष्टि कर, सर्वज्ञ हो और विज्ञानघन हो! समझ में आया? ऐसा सम्यग्दृष्टि अतीन्द्रिय (आनन्द का) प्रेमी है। वह संसार शरीर और भोगों के प्रति सम्पूर्ण विरक्त हो जाता है। समझ में आया? इसलिए उसे समता (होती है)। अन्दर में सम्यग्दर्शन के प्रमाण में समता और आगे बढ़ने से चारित्रदोष मिटकर समभाव की स्थिरता होती है और वीतरागपने की समता (होती है), उसे सामायिक कहा जाता है। विशेष कहेंगे.. (मुमुक्षु - प्रमाण वचन गुरुदेव!)
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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