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________________ ३४ गाथा - ७३ अन्वयार्थ - (जिय जझ्या मणु ग्गिंथु ) हे जीव ! जब तेरा मन निर्ग्रन्थ (जइया तुहँ णिग्गंथु ) तब तू सच्चा निर्ग्रन्थ है (जिय जइया तुहुँ णिग्गंथु ) हे जीव ! जब तू निर्ग्रन्थ है ( तो सिवपंथु लब्भइ ) जो तूने मोक्षमार्ग पा लिया। ✩ ✰✰ ७३, भावनिर्ग्रन्थ ही मोक्षमार्गी है । भावनिर्ग्रन्थ ही मोक्षमार्गी है । जया मणु णिग्गथु जिय तइया तुहुँ णिग्गथु | जइया तुहुँ ग्गिंथं जिय तो लब्भइ सिवपंथु ॥ ७३ ॥ हे आत्मा ! यदि तेरा मन निर्ग्रन्थ है ... उस मन में राग की एकता टूट कर ग्रन्थिभेद किया है, आत्मा शुद्ध आनन्द की दृष्टि की है (तो) तेरा मन निर्ग्रन्थ है। बाहर में भले ही कैसे भी पड़ा हो, कहते हैं। समझ में आया ? पहले सम्यग्दर्शन में, हाँ ! मुनिदशा में तो बाहर से भी छूट जाता है । यहाँ निर्ग्रन्थ पद का विशेष वजन दिया है। हे आत्मा ! तेरा मन निर्ग्रन्थ है (अर्थात् ) अन्तर में से राग- पुण्य-पाप की एकता छूटकर तेरी शुद्ध चैतन्य की सम्पदा के साथ एकता हुई और विशेष एकता हुई, भाव से निर्ग्रन्थ है, तब तू सच्चा निर्ग्रन्थ है, सच्चा निर्ग्रन्थ है। बाहर से नग्न हुआ, वस्त्र छोड़कर नग्न हुआ वह कोई सच्चा निर्ग्रन्थ नहीं है। समझ में आया ? हे जीव ! यदि तू निर्ग्रन्थ है, यदि तेरा अन्तरस्वभाव पवित्र भगवान आत्मा में प्रीति लग गयी है और तुझे पुण्य-पाप की प्रीति राग की गाँठ की प्रीति छूट गयी है, ऐसा जो निर्ग्रन्थ है तो तूने मोक्षमार्ग प्राप्त कर लिया है। उसने मोक्षमार्ग प्राप्त कर लिया है 1 'सिवपंथु लब्भई' मोक्ष का पंथ तुझे प्राप्त हो गया । बाहर के साथ सम्बन्ध नहीं है । भगवान आत्मा पूर्ण शिवस्वरूप प्रभु और रागादि दुःखरूप, उन दोनों का विवेक करके भेदज्ञान कर लिया और विशेष आत्मा में स्थिरता जम गई तो तू निर्ग्रन्थ है । भाव निर्ग्रन्थ है तो भले बाहर में निर्ग्रन्थ द्रव्यलिङ्ग आता ही है परन्तु भाव निर्ग्रन्थ है तो तूने शिवपन्थ प्राप्त कर लिया है। समझ में आया ? बाहर में अकेला निर्ग्रन्थ होकर भाव निर्ग्रन्थ न हो तो आत्मा को कभी लाभ नहीं होता, यहाँ यह बताते हैं ।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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