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________________ गाथा - ९८ तो एक छोर यहाँ (तक) जायेगा । वह अग्नि के कारण नहीं, उसका स्वभाव है। लोहे का - उसका स्वभाव है । लकड़ी का ऐसा स्वभाव है। अग्नि तो दोनों को है । दियासलाई भी यहाँ है, बीड़ी पीते हैं न ! इस ओर की लकड़ी गर्म होवे तो कोई बीड़ी नहीं पी सकता । लकड़ी का ऐसा स्वभाव है कि उष्णता यहाँ नहीं जाती। यहाँ तक रहती है। लोहे का ऐसा स्वभाव है... अग्नि के कारण नहीं । अग्नि तो दोनों को एक है... जायेगा, उसकी योग्यता की पर्याय है। ३३८ इसी प्रकार स्फटिक और भगवान आत्मा जो शुभरूप से रंगे तब शुभ विकल्परूप परिणमता है; अशुभरूप रंगे तो अशुभरूप तन्मय हो जाता है; शुद्धरूप होवे तो शुद्ध से तन्मय हो जाता है। समझ में आया ? ऐसा उसका पर्याय धर्म है। यहाँ से हटकर यहाँ जा तो वहाँ तन्मय तेरी निर्मलदशा प्रगट होगी, वरना यह राग-द्वेष की तन्मय तेरे अस्तित्व में है, क्योंकि जीव का तत्त्व है न! उमास्वामी ने इसे जीवतत्त्व कहा है न ? पाँच भाव जीव तत्त्व कहे हैं, अत: उदयभाव जीवतत्त्व में जीवतत्त्व है, जड़ नहीं, अजीव नहीं । पाँच भाव — - उदय, उपशम, क्षयोपशम ... पाँचों ही जीवतत्त्व कहे हैं। पूरा तत्त्व लेना है उन्हें ! तो वह जीवतत्त्व है, विकार भी जीवतत्त्व के अस्तित्व में है। ऐसा ध्यान करे तो वह छूट जाता है ऐसा, तत्त्वानुशासन में विस्तार है, लो! यह ९९ में कहेंगे । 1 (श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव !) fxwwww
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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