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________________ गाथा-९८ शरीर में रहा हुआ भगवान। पिण्ड अर्थात् शरीर में रहा हुआ भगवान, उसका विचार, ध्यान करना। पदस्थ अर्थात् पाँच पद में स्थित - अरहन्त, सिद्ध आदि का विचार करके अन्तर में ध्यान करना। रूपस्थ (अर्थात्) अरहन्त के अकेले के रूप में स्थित शरीर, उसका ध्यान और रूपातित (अर्थात) सिद्ध का। उनका विचार करके... है परद्रव्य. परन्तु फिर भी उनका विचार (करके) अन्दर में जाना, यह उसका परिणाम-फल है। समझ में आया? उनका मनन कर... जिम लहु परु पवित्तु होहि। जिससे लहु अर्थात् शीघ्र तू पवित्र हो जाएगा, भाई! तेरे स्वरूप में अन्तर एकाग्र होने से तू अल्प काल में परमात्मा हो जाएगा। तुझे अल्प काल में सिद्धपद मिलेगा परन्तु इस पवित्रता के ध्यान में कलावाले को मिलेगा। दूसरी कोई कला परमात्मपद को प्राप्त करने की नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया? दृष्टान्त दिया है जैसे वस्त्र को ध्यानपूर्वक रगड़ने से मैल साफ होता है.... यह वस्त्र का दृष्टान्त है। इसी प्रकार अशुद्ध आत्मा... मलिनता है या नहीं दशा में? वह आत्मा की रगड़ता; रगड़ता अर्थात् आत्मा में एकाग्रता। उसके द्वारा शुद्ध हो जाता है। ज्ञानावरणीय की बात की है, यह व्याख्या दी है, वह तो ठीक है। यह संक्षिप्त अर्थ कर दिये और यह अन्तिम गाथा देखो! तत्त्वानुशासन में येन भावेन यद्रूपं ध्यायत्यात्मानमात्मवित्। तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा॥१९१॥ जिस भाव से व जिस रूप से आत्मज्ञानी आत्मा को ध्याता है, उसी से वह तन्मय हो जाता है,.... क्या कहा? भगवान आत्मा आनन्दस्वरूप और पूर्ण ज्ञानस्वरूप - ऐसे भाव से और ऐसे स्वरूप से उसका ध्यान करता है तो वह दशा उस भाव में तन्मय हो जाती है। भगवान आत्मा येन जिस भाव से और जिस स्वरूप से... भगवान पूर्ण शुद्ध आनन्द है और ज्ञान की मूर्ति है – ऐसे भाव से और ऐसे रूप से जो उसे ध्याता है – ऐसा आत्मज्ञानी आत्मा को ध्याता है, उसी से वह तन्मय हो जाता है,.... तब वह वर्तमान दशा त्रिकालभाव के साथ एकमेक हो जाती है। आहा...हा...! समझ में आया?
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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