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________________ योगसार प्रवचन (भाग - २) ही नहीं है। जो वस्तु आनन्दमूर्ति है, उसमें एकाग्र हुआ ऐसा कहना और फिर आनन्द न आवे ! वह मिथ्या (है)। ध्यान करते हैं, ध्यान करते हैं (- ऐसा बहुत से कहते हैं) । इसका ध्यान ? आत्मा का । आत्मा का ? आत्मा क्या है ? क्या कहा भाई ! भाई ! राग का ध्यान कर तो राग का स्वाद आयेगा; उसका आकुलता का स्वाद आये बिना नहीं रहेगा परन्तु उस आकुलता की इसे तुलना नहीं है। मिंडवनी अर्थात् तुलना । यह आनन्द है और (यह) आकुलता है । इस आनन्द को देखे तो उसके साथ मिलान करे कि यह आकुलता है। एक माल देखा हो तो दूसरे माल के साथ मिलान करे कि यह बाजरा..... क्या कहलाता है ? मूँग के दाने जैसा । बाजरा होता है न, रोटी (होती है) । यह मूँग के दाने जैसा, ज्वार मोती के दाने जैसी, ऐसी सब बनियों की भाषा होती है । देखो, मूँग दाने जैसा बाजरा है | चेतनजी ! ज्वार होवे तो मोती के दाने जैसी कहें परन्तु वह अच्छी दिखती हो तो किसी के साथ मिलान करते हैं कि यह मोती के दाने जैसी ज्वार है (और) यह ज्वार वैसी नहीं है, भाई ! ३३१ इसी प्रकार आत्मा को आनन्द का स्वाद दृष्टि में आया हो तो रागादि आकुलता है - ऐसे उसके साथ मिलान करे, आहा... हा...! यह आकुलता है, यह आनन्द की जाति नहीं है परन्तु जिसे आनन्द का ही जहाँ पता नहीं है, उसे यह आकुलता है ऐसा किसके साथ मिलान करेगा ? यह आकुलता ही उसका सर्वस्व स्वरूप मानेगा। समझ में आया ? - समाधिभाव में... यह तत्त्वानुशासन का श्लोक है। ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा का अनुभव न हो और वह ध्यान करे... सब करते हैं न, कितने ही अन्यमत में ? ॐ.. ॐ... ॐ.... बापू ! यह ध्यान नहीं है । यथार्थ ध्यान तो उसे कहते हैं कि जो आत्मा वस्तु सर्वज्ञ ने देखा और है, वह तो आनन्दमय है, ऐसे अनन्त गुणवाला है, क्योंकि आनन्द है, उसकी रुचि है, उसका ज्ञान है, उसका वीर्य है, उसकी स्थिरता है, अस्तित्व है, वस्तुत्व है, प्रमेयत्व है, ज्ञान में ज्ञात हो - ऐसे अनन्त गुण का पिण्ड है। ऐसे आत्मा का यदि ध्यान हो और अतीन्द्रिय आनन्द न आवे तो वह ध्यान भी झूठा - मिथ्या है। कुछ कल्पना से मानता है कि मैं ध्यान करता हूँ।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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