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________________ गाथा - ९७ लोकन के कुकर आशाधारी, आतम अनुभव रस के रसिया, उतरे न कबहूं खुमारी, आशा औरन की क्या कीजै, ज्ञान सुधारस पीजै ।' आशा... आ...हा...! ३२४ किसकी आशा की ? भाई ! कहाँ स्वर्ग में कहीं सुख है ? कहाँ देवों में सुख है, लेश्या में सुख है, शरीर में (सुख है) । अरे ! पुण्य-पाप के भाव में सुख है ? कहाँ सुख है ? भाई ! वह सुख तो भगवान आत्मा के अन्दर में है, उसके ज्ञानरस को पी ! ज्ञानानन्द के निर्विकल्प रस का पान पी। आहा... हा... ! ' कूकर आशाधारी' हाय... हाय... ! कहीं मिलेगा, दूसरे बड़ा कहे और अच्छा कहे, शास्त्र पढ़ा हुआ, व्याख्यान करना आवे, बहुतों का रंजन करे (कहते हैं) भिखारी है । जहाँ-तहाँ यह मुझे ठीक कहे, ठीक कहे । क्या है परन्तु तुझे ? शरीर कुछ सुन्दर हो तो ऐसा बताना चाहे । दर्पण में देखते हैं न ? सबेरे देखो भूत की तरह (देखते हैं) । छोटा दर्पण हो तो बहुत ऐसा करना पड़े, बड़ा हो तो फिर (ठीक) । छोटा दर्पण और सिर बड़ा (होवे), यह लक्षण इस समय देखने हों तो ' भूत जैसे लगते हैं, हाँ! उसमें फिर हाथ में वह रह गया हो... कंघा ! और एक ओर तेल । आहा... हा... ! कहीं सुख, कहीं सुख। इसमें से सुख, इसमें से सुख । अच्छा दिखूं तो सुख, मैं अच्छा दिखता हूँ न ? शरीर अच्छा दिखे तो सुख, आहा... हा...! भगवान तू कहाँ भटका, कहते हैं, हैं! कपड़ा-बपड़ा ठीक हो, अप-टू-डेट ऐसा लगता हो, कपड़े में डाले कोई इत्र-वित्र ऐसा डालते हैं न ? सेण्ट डालते होंगे परन्तु ऐसा डालकर चलते हैं। हम तो... वह अपने 'वेणीभाई', नहीं थे ? राजकोट ! वे प्रतिदिन सामने मिलते थे । बक्षी ! प्रतिदिन तीन-चार गाँव घुमते प्रतिदिन नागर, नागर थे। सामने हर रोज मिलते। सेन्ट अन्दर से सुगन्ध मारे । चारों चले जायें, छह-छह मील तक चलें। छह मील चलें, तब लोटोभाडे - ऐसा दर्द था कुछ। उस दिन यह देखा, ऐसा साथ में निकले, तब वह कपड़े की गन्ध मारती हो, आहा... हा.... ! सेन्ट से सारा, पेन्ट से सुधरे हुए, इससे सुधरे हुए, बाल से सुधरे हुए, कपड़े से सुधरे हुए, गहनों से सुधरे हुए और बाहर के मकान और मकान की सब घरेलू चीजें फर्नीचर कहो, तुम्हारी भाषा बदलनी है न! उससे हमारी शोभा ! प्रभु ! तू कहाँ भटका है तू ? क्यों, भीखू भाई ! सत्य बात होगी यह ? आहा...हा...! कहते हैं, भाई ! यह सुधारस का सागर तो तू है। हैं! सुधारस का सागर तू है, उसमें -
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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