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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) ३२१ शान्ति और आनन्द हो, वह मेरे स्थान में, मेरे क्षेत्र में, मेरे भाव में है। ऐसा विकार में शान्ति और सुख अनादि से माना, उसे ऐसे गुलाट खाकर, राग की एकत्वबुद्धि छोड़कर, स्वभाव की एकता करके आत्मा में आनन्द है, शान्ति है, उसके स्वाद के समक्ष जगत का सभी स्वाद फीका है - ऐसी दृष्टि हो, फिर विकल्प को छोड़कर स्थिर हो। यह तो चारित्र के अधिकार की विशेष बात है न! विकल्प को छोड़कर। परम-समाहि लहंति परम शान्ति पाता है। भगवान आत्मा में जो शान्ति... शान्ति... शान्ति... जिसका स्वभाव है। समाधि कहो, शान्ति कहो, समभावरूप अमृत, समस्वरूप अमृत वीतरागभाव कहो - ऐसा जो आत्मा, वह विकल्प को छोड़कर और निर्विकल्प आनन्द के लाभ को प्राप्त करे, उसे परम शान्ति पाना कहते हैं। जो परम समाधि को प्राप्त करता है। यह पर्याय की बात है, हाँ! वस्तु तो त्रिकाल... त्रिकाल परम शान्ति और समाधि से ही भरपूर पदार्थ है। वस्तु हो, उसका स्वभाव निर्दोष ही होता है। वस्तु का कोई सदोष स्वभाव नहीं होता; सदोषता तो दशा में - हालत में – पर्याय में होती है। वस्तु तो निर्दोष स्वभाव से भरपूर (पदार्थ है)। निर्दोष स्वभाव कहो या समाधिस्वरूप कहो, या वीतराग समरस कहो – ऐसे आत्मा का, पुण्य -पाप के विकल्प को छोड़कर अनुभव करना, तो वह शान्ति को प्राप्त करता है। वह शान्ति अर्थात् आत्मा के आनन्द के सुख को पाता है। यहाँ तो बहुत ही संक्षिप्त में और रोकड़िया की बात है। समझ में आया? इस संसार में भी नगद का धन्धा है। जितना विकल्प करे उतना दुःख, उसी काल है और कर्म बाँधेगा तथा संयोग मिलेंगे, वह तो बाहर की चीजें रहीं, परन्तु जितना आत्मा के स्वभाव से विपरीत भाव किये, वे भाव दुःखरूप का वेदन उसी काल में है। १०२ गाथा में आता है न? 'उस समय कर्ता और उस समय भोक्ता' करइ वेदइ १०२ (गाथा), कर्ता-कर्म (अधिकार) समयसार! उसी समय भोक्ता है, समझ में आया? ___ कहते हैं कि जितने पुण्य-पाप के विकारी भाव करे, उतना रोकड़िया दुःख उस काल में है। रोकड़िया समझे ? धन्धा करते हैं, रोकड़िया धन्धा करे, कोई उधार का धन्धा करे। पहले पैसे दे फिर धन्धा। इन वकीलों का ऐसा धन्धा होता है। हम कहाँ उगाही लेने
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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