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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) ३१५ और यह मेरा दिन। दिन और पहर तो वहाँ रहे, यहाँ कहाँ अन्दर में आ गये हैं ? समझ में आया? ऐसा आता है। मोहीमें है मोहि सूझत नीके ॥ बन्ध अधिकार, ४८वाँ है, बनारसीदास! अरे... ! भगवान तेरा तेरे पास है, बापू! कहीं ढूँढ़ने जाये तो वहाँ से मिले ऐसा नहीं है परन्तु न हो उसमें से कहाँ से मिलेगा? हो उसमें से मिले या न हो उसमें से मिलेगा? आहा...हा... ! इतना बड़ा मैं ! इसे जमता नहीं। रंक हो गया, रंक – भिखारी। ऐसा हूँ ! ऐसा मैं! एक छोटी उम्र का बनिये का लड़का था, उसका पिता पच्चीस करोड़ रुपया छोड़ गया... पच्चीस करोड़ ! ननिहाल में... इसको महीने में सौ रुपये दें, खाने-पीने का तो हो ही, जेब में सौ रुपये। फिर यह बड़ा हुआ तो इसे लगा कि मेरे तो लोग अच्छे हों, यहाँ कहीं खाने-पीने जाना हो, मित्र मुझे जिमाते हैं तो मुझे भी जिमाना चाहिए, मुझे अधिक (पैसा) चाहिए। दूसरा व्यक्ति कहता है परन्तु यह सब पच्चीस करोड़ तेरे हैं, यह तो... हैं । है...! हाँ, तैयार होकर मालिक हो। इसी प्रकार इस आत्मा में महानिधान पड़ा है, उसका यह स्वामी आहा...हा...! पता नहीं है, बालक की तरह इसे पता नहीं है। थोड़ा पुण्य करे और थोड़ा राग मन्द करे और कुछ किया तो (ऐसा माने कि) ओ...हो...! हमने बहुत किया। यह हमारी पूँजी, यह हमारी पूँजी। यह (पूँजी) नहीं। समझ में आया? दो बातें की, हाँ! एक ओर आत्मा है तथा एक ओर रागादि विकारादि पर है। इन दोनों को जाने तो इसका आश्रय लेकर उस परभाव को छोड़े, दो को जाने बिना एक का आदर करना और एक को छोड़ना... ज्ञान तो दोनों का चाहिए – ऐसा कहते हैं। उसमें कहा था अकेले आत्मा का ज्ञान... फिर इसमें दो साथ में लिये। भगवान आत्मा जितनी शुद्धि तुझे प्रगट करनी है, वह सब शुद्धि तेरे सत्व में सत्व में सत्व में पड़ी है। ऐसे आत्मा को जानने से रागादि विकारादि पुण्य-पाप के भाव पर हैं – ऐसा जानकर इसकी ओर ढलने से वे छूट जाएँगे। परभाव को छोड़ना उन्हें जानकर छोड़ना और इसे जानकर आदर करना - ऐसी दो बातें हैं । आहा...हा...! समझ में आया?
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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