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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) २९३ चिदनाथ, अखण्डानन्द भगवान, वह मैं । ऐसी अन्तर्दृष्टि कर, ज्ञानचेतना की केलि कर। राग की चेतना और कर्मफलचेतना को गौण कर डाल। समझ में आया? सर्व काल शान्तरस का ही पान करना। यही ज्ञानी की प्रेरणा है। लो, यह ९३ गाथा (पूरी) हुई। आत्मा को पुरुषाकार ध्यावे पुरियासार-पयाणु जिय अप्पा एहु पवित्तु। जोइज्जइ गुण-गण-णिलउ-णिम्मल-तेय-फुरंतु॥९४॥ पुरुषाकार पवित्र अति, देखो आतम राम। निर्मय तेजोमय अरु, अनन्त गुणों का धाम॥ अन्वयार्थ - (जिय) हे जीव! ( एहु अप्पा पुरियासार-पमाणु पवित्तु गुण -गुण-णिलउ णिम्मल तेय-फरंतु जोइज्जइ) इस अपने आत्मा को पुरुषाकार प्रमाण, पवित्र, गुणों की खान व निर्मल तेज से प्रकाशमान देखना चाहिए। ९४ अब जरा अन्यमती से अलग बात (करते हैं) क्योंकि पुरुषाकार आत्मा है। लोकाकाश प्रमाण, लोक प्रमाण आत्मा नहीं ऐसा बडा आत्मा को आकाश प्रमाण बडा व्यापक होगा? तुम आत्मा की बहुत महिमा करते हो, महान... महान... महान... तो वह महान सम्पूर्ण लोकालोक में व्यापक होकर महान होगा? नहीं। वह व्यापकपना क्षेत्र से उसे महानपना नहीं हो सकता। उसे भाव का महानपना है, क्षेत्र से तो शरीर प्रमाण है, इसलिए शब्द लिया है। पुरियासार-पयाणु जिय अप्पा एहु पवित्तु। जोइज्जइ गुण-गण-णिलउ-णिम्मल-तेय-फुरंतु॥९४॥ __ ओ...हो... ! अकेले आनन्द की जड़ पड़ी है। यह वर्षा की झड़ी आती है या नहीं? वर्षा की झड़ी आवे, वहाँ तीन-तीन दिन तक सामने देखा नहीं जाता। पहले इतनी वर्षा थी,
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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