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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) २७३ निर्वाण का उपाय कष्ट सहन.... इन्होंने (भावार्थ में) इसकी थोड़ी व्याख्या की है। शब्द तो यही है परन्तु 'सम' में से निकाला है। मोक्ष का उपाय कष्ट सहन नहीं । लोग कहते हैं न कि जैसे कष्ट सहन करूँगा, ऐसे अधिक.... धूल में... कष्ट सहन में तो दुःख है। मोक्षमार्ग दुःखरूप होता है ? बहुत सहन करे, परीषह बहुत सहन करे... परीषह सहन करना अर्थात् क्या? अन्तर अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद और उल्लसित आनन्द स्फुरित हो। दुःख नहीं लगे प्रतिकूलता नहीं दिखे, ज्ञाता के समभाव में जाननेवाला-देखनेवाला... जाननेवाला-देखनेवाला (रहता है)।लाख प्रतिकूलता हो, वह सब ज्ञेय-जाननेयोग्य चीज है, मुझे कोई प्रतिकूल है नहीं और मुझे कोई अनुकूल है नहीं। यह प्रतिकूल विकारीभाव और अनुकूल भगवान आत्मा है। सम्यग्दृष्टि की दृष्टि प्रतिकूल, वह अपने पुण्यपापभाव, वह अनिष्ट और दुःखरूप है ( – ऐसा देखती है)। इसलिए आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द का कन्द, यह उसकी दृष्टि – सम्यग्दृष्टि की होती है। आहा....हा.... ! समझ में आया? सुख का भोग, क्या कहते हैं ? देखो! परन्तु समभावपूर्वक सुख का भोग है। यह अर्थ है। इसमें नहीं है, यह तो शब्द है, इसमें थोड़ी टीका की है। सम्यग्दृष्टि को दुःख नहीं । दुःख सहन करना, वह मोक्ष का उपाय नहीं है। आनन्द समता... समता... समता... कौन सी समता? लोग कहते हैं, वैसी नहीं। अन्तर समस्वरूपी प्रभु, शीतल शिला, अरूपी चिदानन्द, चन्दन... चन्दन... चन्दन शिला आत्मा और अतीन्द्रिय आनन्द की मूर्ति प्रभु का स्पर्श करके आनन्द का वेदन आया, वह कष्ट नहीं; वह समसुख है। वह समसुख मोक्ष का उपाय है। सुख का भोग साथ में है। आहा...हा... ! उसे निर्जरा कहा जाता है। जिसमें शान्ति... शान्ति... अनाकुल शान्ति, स्वभाव के सागर में से कण फूटा... भगवान...! जैसे पानी का समुद्र हो और जैसे ज्वार आवे, ज्वार किनारे आवे; वैसे अतीन्द्रिय आनन्द का सागर चैतन्य रत्नाकर प्रभु आत्मा है। उसकी अन्तर में सम्यग्दृष्टि से एकाग्र होने से उसकी वर्तमान दशा में आनन्द की बाढ़ आती है, वह आनन्द की बाढ़ मोक्ष का उपाय है। आहा...हा...! कल्याणजीभाई! ये शब्द भी कभी सुने नहीं होंगे। कामदार ने तो तुरन्त स्वीकार किया। धीरुभाई ! जोबालिया! बहुत इकट्ठे हुए हैं। यह भी जोबालिया ही है न? ओ...हो...!
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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