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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) २६७ हैं। कहो, समझ में आया? इन पुण्य-पाप के भाव में सुख मानें, पैसे में सुख मानें, स्त्री में सुख मानें, राग में सुख मानें, भगवान कहते हैं कि वह मूढ मिथ्यादृष्टि है। है ? मुमुक्षु - वह दुःखी है। उत्तर - दु:खी है – ऐसा कहते हैं। कान्तिभाई ? क्या होगा यह ? पुण्य-पाप में पड़ा हुआ दु:खी है। उसके फल की बात नहीं, फल तो बाहर धूल है। पैसा-वैसा बाहर की धूल में गये, उसमें यहाँ कहाँ आ जाते हैं ? इसके पास तो शुभ और अशुभ विकार होता है। वह शुभ और अशुभभाव है, वह दुःखरूप है, वह दुःखी जीव है। उनसे रहित आत्मा का सम्यग्दर्शन होने पर 'सम सुक्ख णिलीणु' सम्यग्दृष्टि जीव – धर्म की शुरुआतवाला जीव, आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद आया - ऐसा (जीव).... सम सुक्ख । सम (शब्द) क्यों रखा है ? कि पुण्य-पाप के भाव वह विषम हैं। शुभ-अशुभभाव होते हैं, वे विषम हैं, विषम हैं, कषाय है। उनसे 'सम सुक्ख णिलीणु' वे पुण्य-पाप के भाव विषम हैं, आकुलता है। उनसे रहित भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द / सम सुख से भरपूर तत्त्व है, उसकी दृष्टि करने से सम सुख की दृष्टि होने पर धर्मी सम सुख में लीन है। अतीन्द्रिय आनन्द में जिसकी प्रीति, रुचि और अनुभव है... आहा...हा...! अद्भुत बात, भाई! समझ में आया? पुस्तक है या नहीं? भाई, कामदार ! बहियों में नामा लिखते हो तब एक-दूसरे में को मिलाते हो या नहीं? क्या कहलाता है ? 'जो समसुक्ख णिलीणु बुहु।' 'बुहु' शब्द है न? भाई! यह 'बुहु' अर्थात् ज्ञानी होता है। ज्ञानी वोहि नहीं आता? वोहि दयाणं । वोहि अर्थात् ज्ञानी, 'समसुक्ख णिलीणु बुहु' - इतना अर्थ हुआ। 'पुण पुण अप्पु मुणेइ पुण पुण' अर्थात् बदल-बदलकर इस आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द की रुचि और दृष्टि जो हुई है, वह बारम्बार अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव करता है, उसे संवर और निर्जरा होते हैं। आहा...हा... ! समझ में आया? सो वि पुण पुण' अनुभव करता है। 'पुण पुण' अर्थात् बारम्बार। मक्खी को फिटकरी के स्वाद में फीकापन लगता है और उसे शक्कर के स्वाद में मिठास लगती है। मक्खी जैसा जानवर भी शक्कर को छोड़कर उड़ता नहीं है। इसी प्रकार भगवान आत्मा पुण्य-पाप के भाव फिटकरी जैसे खारे और दुःखरूप हैं, उनके स्वाद में
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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