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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) २६१ पहला शब्द 'बुहु' प्रयोग किया है। बुध – यह आत्मा, यह देह, वाणी, मन तो मिट्टी जड़ है, धूल है; यह आत्मा नहीं। अन्दर आठ कर्म के रजकण सूक्ष्म धूल है, वह भी आत्मा नहीं, वह मिट्टी है; आत्मा में हिंसा, झूठ, चोरी कमाने आदि के भाव (होते हैं वे) पाप हैं और दया. दान, भक्ति. व्रत आदि परिणाम होते हैं. वह पण्य है। इन पण्य और पाप के भाव से रहित अपना स्वरूप शुद्ध ज्ञानानन्द अतीन्द्रिय आनन्द का कन्द यह आत्मा है। उसका अन्तर में रागरहित रुचि करके स्वभाव की अन्तर्दृष्टि होना और आत्मा ज्ञानानन्द है - ऐसा अनुभव होना, उसे धर्मी और ज्ञानी कहते हैं। सूक्ष्म बात है। कितने ही लोगों ने तो कभी सनी भी नहीं होगी। यह भगवान आत्मा - ऐसा कहते हैं. कैसा? है? यह आत्मा ऐसा है। यह तो सब आये हैं न? सुने किस प्रकार? समझें तब न कठिन... कठिन...? 'सम सुक्ख' ऐसा शब्द पड़ा है। धर्मी सम सुख में लीन होकर... भगवान आत्मा अन्तर अतीन्द्रिय जैसा सिद्ध का आनन्द है, जैसा सिद्ध परमात्मा में आनन्द है, वैसा इस आत्मा में अन्तरस्वरूप में आनन्द है । यह पुण्य-पाप के, राग-द्वेष के भाव, आकुलता और दुःख है। उनसे रहित आत्मा में आनन्द होना, उसे सुख कहते हैं। समझ में आया? कहो, रतिभाई! इस पैसे में सुख है, शरीर में सुख है, कमाने में सुख है – ऐसी जो कल्पना / मान्यता, वह मिथ्यात्व है और उसमें सुख है, इस विपरीत मान्यतासहित का राग-द्वेषभाव है, वह दु:ख है। मुमुक्षुः ....... उत्तर : धूल में भी नहीं। कौन सुखी है? सब समझने जैसे हैं, सब दुःखी हैं, भगवान आत्मा में.... सर्वज्ञ परमेश्वर केवलज्ञानी (ऐसा कहते हैं कि) भाई! तेरा आत्मा अनादि से आत्मा के आनन्दस्वरूप की दृष्टि के बिना अकेले शुभ और अशुभ के विकार के भाव को करके 'मुझे सुख है' - ऐसा मूढ़ मिथ्यादृष्टि अनादि से मानता है और यदि धर्म करना हो तो धर्म उसे कहते हैं कि यह शरीर, वाणी, मन तो जड़ है, ये तो मुझमें नहीं हैं परन्तु शुभ और अशुभ, पुण्य और पाप यह विकार, कृत्रिम उपाधि, मैल, वह मेरी चीज में नहीं है। मेरी चीज में तो अतीन्द्रिय आनन्द (भरा है)। अतीन्द्रिय अमृतस्वरूप, सुखस्वरूप.... आत्मा अतीन्द्रिय सुख का सागर है। आहा...हा...!
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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