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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) २५७ अन्वयार्थ - (जइ कमलणि-पत्त कया वि सलिलेण ण लिप्पियइ) जैसे कमलिनी का पत्ता कभी भी पानी से लिप्त नहीं होता (तइ जइ अप्प सहावि रइ कम्मेहिं ण लिप्पियइ) वैसे ही यदि आत्मीक स्वभाव में रत हो तो जीव कर्मों से लिप्त नहीं होता है। ९२ आत्मरसी जीव कर्मों से नहीं बँधता – यह तो योगसार है न? योगसार का ही स्पष्टीकरण बहुत किया है। जह सलिलेण ण लिप्पियइ कमलणि पत्त कया वि। तह कम्मेहिं ण लिप्पियउ जइ रइ अप्प सहावि॥९२॥ शर्त यह। जिसे आत्मा में रति लगी है, आत्मा की लगन लगी है.... रति है न? भाई ! निर्जरा अधिकार में २०६ गाथा में है न? उसमें प्रीति कर, उसमें रति कर, उसमें सन्तोष कर, उसमें स्थिर होओ। पालीताना में यह गाथा चली थी, अहमदाबाद में भी वह चली थी। वह भड़के... भड़के... भड़के... यह तो आत्मा... आत्मा करते हैं परन्तु सुन, भगवान! तुझे आत्मा के अतिरिक्त क्या करना है? यह क्रिया करो, भगवान की यात्रा, पूजा, सिद्धगिरि, सिद्धगिरि के दर्शन करो.... अब यह तो शुभभाव है, बापू! तू लाख सिद्धगिरि के ऊपर जा न! यह सिद्धगिरि पूरी अन्दर पड़ी है, अनन्त सिद्धों की पर्याय जो एक समय में सिद्ध को प्रगट हो... ऐसी अनन्त पर्यायें रखकर भगवान अन्दर पड़ा है, उस सिद्धगिरि पर चढ़.... बल्लभदासभाई ! तो तेरी यात्रा सफल होगी। यह शत्रुजय है। शत्रु का जय करनेवाला भगवान आत्मा, वह शत्रुजय है। यह भक्ति का भाव अशुभ से बचने के लिए होता है – ऐसा व्यवहार से कहा जाता है। वरना उस काल में आने योग्य भाव होता है, इसलिए शुभभाव आता है; हो परन्तु तू उसे ऐसा मान ले कि इससे धीरे-धीरे कल्याण हो जायेगा (तो ऐसा नहीं है)। स्वद्रव्य के आश्रय के बिना कल्याण का अंश कभी भी नहीं जगता है। देखो, दृष्टान्त दिया, हाँ! जैसे कमल का पत्र कभी भी पानी से लिप्त नहीं होता.... यह अपने आ गया है। (समयसार) चौदहवीं गाथा। उसी प्रकार यदि जीव
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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