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________________ २५४ गाथा-९१ सम्यक्मार्ग साधना वह व्यवहार है। सम्यग्ज्ञान और स्वरूपाचरण की कणिका जागी, वह मोक्षमार्ग सच्चा। बनारसीदास, परमार्थ वचनिका... । अन्त में कहेंगे यह यथा सुमति प्रमाण... समझ में आया? केवली वचनानुसार है। यथायोग्य सुमति प्रमाण... जो जीव यह सुनेगा, समझेगा, श्रद्धा करेगा, उसे भाग्यानुसार कल्याण होगा। समझ में आया? अज्ञानी होगा, वह इस स्थिति को सुनेगा अवश्य, समझेगा नहीं। बनारसीदास ने तो बहुत लिखा है। तीनों काल ऐसे जीव होते हैं। जहाँ उसे स्वयं को अन्दर में भरोसा और उस प्रकार का ख्याल न आवे तो उसे खटका करता है कि ऐसा नहीं होता, ऐसा होता है परन्तु उसे धीरे से, शान्ति से देखे तो पता पड़े न? यहाँ कहा, देखो! क्या कहा? सम्यग्ज्ञान स्वसंवेदन और स्वरूपाचरण की कणिका, तीनों हो गये। सम्यग्दृष्टि हुई, स्वसंवेदन ज्ञान हुआ, चौथे में स्वरूपाचरण की कणिका कही है। पाँचवें में बढ़ गयी, छठे में बड़ी, सातवें में स्थिरता बढ़ गयी। चन्दुभाई ! देखो न! भाषा कैसी है ! स्वरूपाचरण की कणिका जगी, कणिका जगी, स्थिरता का अंश चौथे में (जगा है) – ऐसा लिखा है, हाँ! समझ में आया? सम्यग्दृष्टि जीव अन्तर्दृष्टि द्वारा मोक्षपद को साधता है, बाह्य भाव को बाह्य निमित्ताधीन मानता है। रागादिक होते हैं, जानता है कि निमित्तरूप है मोक्षमार्ग। समझ में आया? और मोक्षमार्ग साधना, व्यवहार शुद्धद्रव्य क्रियारूप वह निश्चय। भगवान अक्रिय शुद्धबिम्ब को यहाँ निश्चय कहा है और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की क्रिया जो पर्याय होती है, उसे भेदरूप पर्याय है, इसलिए व्यवहार कहा है। दशा लेनी है न? ध्रुवबिम्ब प्रभु पड़ा है, उसे निश्चय कहा, अक्रिय है, उसमें क्रिया नहीं है, परिणमन नहीं है, उत्पाद-व्यय नहीं है और उसके आश्रय से जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की पर्याय हुई, वह मोक्षमार्ग साधा, वह तो व्यवहार हुआ। पर्याय है न, इस अपेक्षा से व्यवहार, हाँ! वह राग व्यवहार (कहते हैं उसका) अभी काम नहीं है। समझ में आया? क्योंकि मोक्षमार्ग की पर्याय के आश्रय से मोक्ष नहीं होता; मोक्ष तो द्रव्य के आश्रय से होता है। मोक्षमार्ग की पर्याय का व्यय, मोक्ष का उत्पाद, वह भाव में से होता है। उस पर्याय का व्यय, अभाव में से भाव होता है? समझ में आया? ज्ञानचन्दजी ! यह तो सीधी बात है, भगवान! इसमें कहीं कोई आगे-पीछे
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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