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________________ गाथा - ९१ होने पर भी उनसे दृष्टि हटाकर अपने स्वभाव की ओर देखे तो आत्मा को कर्म के निमित्त से उत्पन्न हुए भाव वे भिन्न हैं; भिन्न ही हैं। समझ में आया ? २४८ इन रागादि को देखने से उसे एक दिखते हैं । यह तो पर्यायबुद्धि, अंशबुद्धि, व्यवहारबुद्धि, मिथ्याबुद्धि हुई। यह विकल्प और यह कर्म, यह शरीर, यह वर्तमानमात्र की समझ में आया ? भगवान आत्मा इस राग, निमित्त, कर्मजन्य उपाधिभाव है तो उसका अपराध, वह अपराध त्रिकालस्वभाव से विरुद्ध है। विरुद्ध है तो वास्तव में उसका स्वभाव नहीं है, हेय है । अतः जब उसे हेय कहा तो उपादेय क्या रहा? समझ में आया ? शुद्ध द्रव्यस्वभाव ज्ञायकभाव उपादेय रहा। न्याय से, साधारण स्थिति से देखे तो यह रहा । कर्म, शरीर यह तो ज्ञेय परद्रव्य में गये; विकार दुःखरूप है । है इसकी अवस्था परन्तु वह दुःखरूप है; इस कारण हेय है। जब वह हेय अर्थात् लक्ष्य करने योग्य नहीं है, आश्रय करने योग्य नहीं है तो रहा आत्मा । समझ में आया ? भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द के स्वाद का पिण्ड है । वह (राग) हेय हुआ, उसके दुःख की अवस्था होने पर भी वह आस्रवतत्त्व में जाती है । आहा....हा... ! उससे भिन्न देखने से अर्थात् वस्तु का स्वभाव देखने से, पानी का स्वभाव देखने से पानी शुद्ध है । है ? आहा... हा... ! बड़ी बात करे परन्तु मूल (बात का पता न ले...... समझ में आया ? कहते हैं, पानी स्वभाव की अपेक्षा से तो निर्मल है। भेदविज्ञान की शक्ति से अपने आत्मा को कर्मों से भिन्न और कर्मोदयजनित भावों से भिन्न सहज ज्ञान दर्शन सुख वीर्य का सागर निरंजन परमात्मादेव ही देखना चाहिए। स्वयं को देखना चाहिए, तो अपना स्वरूप तो ज्ञान-दर्शन-आनन्द- वीर्य का पिण्ड है। समझ में आया ? देखता तो है, देखने की नजर तो है, परन्तु देखने की नजर राग, विकार को देखती है। एक क्षणिक विकृत अवस्था जो स्वभाव से विपरीत है, उसे देखती है। उसी दृष्टि में उससे भिन्न मेरी चीज है - ऐसा देखने से भगवान शुद्ध ही दिखता है। समझ में आया ? सम्यग्दृष्टि को ऐसा ही श्रद्धान होता है। लो ! सम्यग्दृष्टि को ऐसा ही श्रद्धान होता है। समझ में आया ? है ? क्या कहते हैं ?
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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