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________________ आत्मा में स्थिरता संवर व निर्जरा का कारण है अजरू अमरू गुण-गण-णिलउ जहिं अप्पा थिरू ठाइ। सो कम्मेहिं ण बंधियउ संचिय-पुव्व विलाइ॥९१॥ अजरामर बहुगुण निधि, निज में स्थित होय। कर्मबन्ध नव नहिं करे, पूर्व बद्ध क्षय होय॥ अन्वयार्थ -(जहिं अजरू अमरू गुण-गण-णिलउ अप्पा थिरू ठाइ) जहाँ अजर-अमर गुणों का निधान आत्मा स्थिर हो जाता है ( सो कम्मेहिं ण बंधियउ) वहाँ वह आत्मा नवीन कर्मों से नहीं बँधता है (पुव्व संचिउ विलाइ) पूर्व में सञ्चित कर्मों का क्षय करता है। वीर संवत २४९२, आषाढ़ कृष्ण १४, गाथा ९१ से ९२ रविवार, दिनाङ्क १७-०७-१९६६ प्रवचन नं. ३७ योगसार चलता है, उसकी ९१ वीं गाथा। आत्मा में स्थिरता संवर व निर्जरा का कारण है - यह उसका शीर्षक है। अजरू अमरू गुण-गण-णिलउ जहिं अप्पा थिरू ठाइ। सो कम्मेहिं ण बंधियउ संचिय-पुव्व विलाइ॥९१॥ देखो! क्या कहते हैं ? जहाँ अजर-अमर गुणों का निधान... ऐसा शब्द प्रयोग किया है! यह आत्मा अजर-अमर है। अजर-अमर... उसे कभी जीर्णता - वृद्धावस्था लागू नहीं पड़ती है। शाश्वत् ध्रुव सत् तत्त्व अकृत्रिम – नहीं किया हुआ – शाश्वत् स्वभाव की मूर्ति - ऐसा आत्मपिण्ड, वह अजर है, उसे कोई जीर्णता लागू नहीं पड़ती, उसके गुण को भी जीर्णता लागू नहीं पड़ती। वह तो गुणी और गुण सब एक ही चीज है न! समझ में आया?
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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