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________________ २२४ गाथा - ८९ मुमुक्षु : आपने तो बात खोल डाली। उत्तर : गुप्त रखने के लिए होगी ? यह गुप्त बात आचार्यों ने तो ढिंढोरा पीट कर कही है । अमृतचन्द्राचार्यदेव ने तो खुल्लम-खुल्ला कर दिया है, और कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने तो पहले खुला कर डाला। 'व्यवहारोपरिसिद्धी' - क्योंकि व्यवहार पराश्रय है, निश्चय स्व आश्रय है। निश्चय नयाश्रितमुनिवरो प्राप्ति करे निर्वाण की यहाँ है। समझ में आया ? अरे... ! यह बात - मुमुक्षु : लोग व्यवहार को मानते हैं ? उत्तर : लोग चाहे जो हो तो क्या है ? व्यवहार पराश्रय है, वह बन्ध का कारण है, यह सिद्धान्त निश्चित है - तीन काल - तीन लोक में... समझ में आया ? सर्वज्ञ की पैढ़ी में यह चलता है, दूसरी पैढ़ी में नहीं चलता। ऐसा व्यापार भगवान के घर का है। आहा... हा...! यहाँ देवसेनाचार्य कहते हैं जब तक चित्त परद्रव्य... के प्रति लक्ष्य जाता है, विकल्प, सर्वज्ञ परमात्मा है, यह देव है, यह गुरु है ( - ऐसा लक्ष्य जाता है), तब तक उसे बन्ध का कारण है, उसके आश्रय से मुक्ति नहीं होगी। तब तक स्व आश्रय नहीं होता । तब पाठ कैसा लिया है ? देखो भाई ! 'सुद्धे भावे लहुं लहइ' इतना पाठ। अर्थात् यह क्या ( कहा ) ? परद्रव्य के आश्रय से जो भाव होता है, वह अशुद्ध है; परद्रव्य के प्रति लक्ष्य जाता है, चाहे जितना दया दान - भक्ति, व्रत-तपादि, उसके अशुद्धभाव हैं, फिर शुभ हो तो शुद्ध है। स्वद्रव्य के आश्रय से ‘सुद्धे भावे लहुं लहइ' - ऐसा शब्द रखा है। शुद्धभाव अपना आत्मा शुद्ध चैतन्यद्रव्य है, उसके आश्रय से शुद्धभाव उत्पन्न होता है, उस शुद्धभाव से अपना निर्वाण अर्थात् मुक्ति होती है। पहले ही शुद्धभाव से सम्यग्दर्शन, शुद्धभाव से सम्यग्ज्ञान अपने आश्रय से सम्यग्दर्शन, अपने आश्रय से ज्ञान, यह भाव - सम्यग्दर्शन शुद्धभाव है। शुद्धभाव त्रिकाल के आश्रय से उत्पन्न हुई पर्याय, वह शुद्धभाव है। शुद्धभाव त्रिकाल के आश्रय से सम्यक्ज्ञान उत्पन्न हुआ, वह शुद्धभाव है। शुद्धभाव त्रिकाल के आश्रय से स्थिरता-चारित्र हुआ, वह शुद्धभाव है; उस शुद्धभाव से मुक्ति होती है। समझ
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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