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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) २२१ उत्तर : यह सब कुछ ठिकाना नहीं होता। पण्डितजी ! वहाँ २०१३ की साल में वहाँ कहा था, बाद में सुना था। हम आये वहाँ चर्चा में कहते थे, व्यवहाररत्नत्रय बन्ध का कारण है, लाओ, चर्चा करो परन्तु कोई करता नहीं, किसी को सुनना नहीं । व्यवहार पराश्रय है और निश्चय स्वाश्रय है, यह तो सीधी बात है, इस गाथा का यहाँ आधार लेकर कहते हैं। जब तक आत्मा को पहली शुरुआत से स्वद्रव्य चैतन्य का आश्रय न हो, तब तक उसे सम्यग्दर्शन नहीं होता। परद्रव्य के आश्रय से - साक्षात् तीर्थंकर हो, सर्वज्ञ हो, सवमसरण हो, सम्मेदशिखर हो, या गणधर-आचार्य आदि हो, उन परद्रव्य के आश्रय से सम्यग्दर्शन तीन काल में नहीं होता। मुमुक्षु : दिव्यध्वनि से नहीं होता तो फिर.... उत्तर : क्या करे? भगवान ! वह दिव्यध्वनि तो परद्रव्य है, आहा...हा...! मुमुक्षु : अरे... साहिब! उत्तर हिन्दुस्तान में हो जाये। उत्तर : हाँ! यह पण्डित उत्तर हिन्दुस्तान का नहीं? आहा...हा...! भगवान ! न्याय से तो सुनो, भाई! कि यह आत्मद्रव्य है, वह एक सेकेण्ड असंख्य भाग में शुद्धद्रव्य, गुण पर्याय का पिण्ड है... तो वह द्रव्य-गुण-पर्याय शुद्ध है। पुण्य-पाप का विकल्प तो आस्रव है; शरीर, कर्म आदि अजीव है; देव-गुरु-शास्त्र, सम्मेदशिखर या सर्वज्ञ साक्षात् समवसरण, वह परद्रव्य है। परद्रव्य के आश्रय से कभी धर्म की शुरुआत नहीं होती। कहो, समझ में आया? क्योंकि जो स्वद्रव्य है, उसमें अनन्त-अनन्त शद्धता पडी है तो स्वद्रव्य का आश्रय लिये बिना पहले सम्यग्दर्शन की शुरुआत नहीं होती। समझ में आया? यहाँ तो पूरी बात करते हैं कि जब तक परद्रव्य का आश्रय रहता है – रागादि, व्यवहारादि, विकल्पादि (रहेंगे), तब तक उसे मुक्ति नहीं होगी। समझ में आया? देखो! जब तक चित्त परद्रव्य के व्यवहार में रहता है (संलग्न है), तब तक भव्य जीव कठिन-कठिन तप करता हुआ भी.... उग्गतवंपि कुणंतो - ऐसा देवसेनाचार्य का पाठ है। मोक्ष प्राप्त नहीं करता है, पर की ओर के लक्ष्य से कठिन तप क्या, बारह-बारह महीने के उपवास करे, इन्द्रियदमन परलक्ष्य से करे, उसमें क्या हुआ, वह तो पुण्यबन्ध
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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