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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) २१९ जब तक चित्त परद्रव्य के व्यवहार में रहता है... आहा...हा... ! मोक्षपाहुड़ में भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव कहते हैं - परदव्वादो दुग्गई, सदव्वादो हु सुग्गई (गाथा १६) जितना परद्रव्य की ओर लक्ष्य जाता है, वह सब दुर्गति है । आहा... हा... ! वह व्यवहार है । सदव्वादो हु सुग्गई अपना स्वद्रव्य शुद्ध की ओर रुचि • गमन होना, वह सुगति है, उसका नाम सुगति है । परदव्वादो दुग्गई ऐसा पाठ मोक्षपाहुड़ में भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव (कहते हैं) दो पक्ष हैं - स्वभाव की ओर सावधान होना, वह मोक्षमार्ग है; पर की ओर राग होना, वह दुर्गति है। दुर्गति अर्थात् अपनी गति, दूसरी ओर चली है। आहा... हा...! जब तक चित्त परद्रव्य के व्यवहार में रहता है व संलग्न है, तब तक भव्य जीव कठिन-कठिन तप करता हुआ भी मोक्ष को नहीं पाता है... परद्रव्य की ओर के झुकाव में विकल्प रहता है और अन्तर निर्विकल्प अनुभव नहीं है, तब तक उसे मोक्ष नहीं होता परन्तु शुद्ध आत्मीक भावों का लाभ होने पर..... • शुभविकल्प की क्रिया चाहे जितनी हो, उससे संवर- निर्जरा नहीं होती। इसलिए उसे छोड़कर अपने शुद्धभावों से आत्मा का लाभ होने पर, परमानन्द प्रभु आत्मा का श्रद्धा - ज्ञान में लाभ होने पर स्थिरता करने का प्रयत्न करता है, वह होने पर शीघ्र ही मोक्ष को पा लेता है। ऐसा आत्मा अल्प काल में मोक्ष को प्राप्त होता है। संसार - वंसार उसे नहीं रहता। यह ८९ ( गाथा) पूरी हुई। ( श्रोता: प्रमाण वचन गुरुदेव !) www 請
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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