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________________ २०८ गाथा-८८ का बन्ध नहीं है। वह तो देवगति या मनुष्यगति में ही जन्म लेता है। यदि तिर्यञ्च या मनुष्य सम्यक्त्वी हुआ तो स्वर्ग का देव होता है। यदि नारकी व देव सम्यक्त्वी हुआ तो उत्तम मनुष्य होता है। सम्यक्त्व लाभ होने के पहले यदि मनुष्य या तिर्यञ्च न नरक आयु व तिर्यञ्च आयु या मनुष्य आयु बाँध ली हो तो सम्यक्त्वसहित पहले नरक, व भोगभूमि में तिर्यञ्च व मनुष्य जन्मता है। वहाँ भी समभाव से दुःख-सुख भोग लेता है। सम्यक्त्वी सदा सुखी रहता है। बाहर नारकीकृत दुःख भोगत, अन्तरसुख में गटागटी... लो, यह लोग कहते हैं, समकित अर्थात् श्रद्धा... ऐसा नहीं, भगवान ! देखो! बाहर नारकीकृत दुःख भोगत, अन्तरसुख में गटागटी... अन्दर आनन्द के प्रेम की अधिकता में उसे आनन्द है। जितना कषायभाव है, उतना दुःख है। इसकी गौणता करके स्वयं की अधिकता स्वभाव की ओर करता है। समझ में आया? (सम्यग्दृष्टि) मनुष्य, नरक में जाये तो भी सुखी है और मिथ्यादृष्टि नौवें ग्रैवेयक में जाये तो भी दुःखी है। वह यहाँ कहते हैं। कहा है न? 'सम्माइट्ठी-जीवडई, दुग्गई-गमणु ण होइ' और कदाचित् जाये तो क्या है ? यह तो... जाता है... प्रति समय जड़कर्म की निर्जरा होती है और राग की अशुद्धता की भी निर्जरा होती है। 'निर्जरा अधिकार' में आया है न? भाव-अशुद्धि की भी निर्जरा होती है और द्रव्यकर्म की भी निर्जरा होती है। पहली गाथा में द्रव्यकर्म की निर्जरा कही, दूसरी गाथा में भावकर्म की (निर्जरा) कही, प्रति क्षण अशुद्धता खिरती है और द्रव्यकर्म के रजकण भी खिरते हैं। स्वभाव तरफ की अधिकदशा है न? तो कहते हैं....। रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है... दृष्टान्त दिया है। सम्यग्दर्शन से शुद्ध जीव व्रतरहित होने पर भी... लो! भगवान आत्मा, जिसे अन्तर सम्यग्दर्शन सूर्य प्रगट हुआ, सम्यग्दर्शन रवि प्रगट हुआ... (वह) व्रतरहित होने पर भी ऐसे पाप नहीं बाँधता जिनसे वह नारकी हो... ऐसा पाप है नहीं। तिर्यंच हो, नपुंसक हो, स्त्री हो, नीचकुल में जन्म ले... अरे...! अंगहीन हो... ऐसा कर्म नहीं बाँधता। अपने पूर्ण परमात्मस्वभाव
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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