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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) २०१ कदाचित् खोटी गति में जाए तो हानि नहीं है। वह तो पूर्व कृतकर्म का क्षय करता है। पूर्व का बाँधा हुआ कर्म है, उसका उसे नाश हो जाता है। समझ में आया? आत्मा के शुद्धस्वरूप की गाढ़ रुचि, वह अतीन्द्रिय सुख से परम प्रेम रखनेवाला भव्य जीव को सम्यग्दृष्टि कहते हैं। पहले आनन्द से लेते हैं, आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द का सागर, अमृतस्वरूप है, आनन्द मुझमें ही है। अतीन्द्रिय आनन्द की गाढ़ रुचि और परम प्रेम जिसे अन्तर आत्मा में हो गया, उसके पुण्य-पाप, उनका बन्धन और उनका फल, उसका प्रेम रुचि अन्तर से उड़ गयी है। समझ में आया? नाश हो गयी, रुचि नहीं है। गाढ़ रुचि और अतीन्द्रिय सुख का परम प्रेम रखनेवाला... अपने आत्मा में ही अतीन्द्रिय आनन्द और शान्तरस पड़ा है। मेरी शान्ति और आनन्द तीन काल-तीन लोक में कहीं मेरे अतीरिक्त, शुभभाव में भी मेरा आनन्द नहीं तो आदर किसका रहा? समझ में आया? परम गाढ़ रुचि... अपने निर्मालानन्द अनन्त गुण का प्रेम, उसमें आनन्द का प्रेम है तो समस्त गुण का प्रेम आ गया। वह मोक्षनगर का पथिक बन जाता है। वह तो छूटने की दशा का पथिक है; बन्धन की दशा का पथिक नहीं है, क्योंकि आत्मा ही मुक्तस्वरूप है। राग, शरीर, कर्म से मुक्तस्वरूप है। ऐसे मुक्तस्वरूप की अन्तर रुचि, दृष्टि परिणति हो गयी तो उसे मोक्ष के पन्थ के ओर की ही उसकी पर्याय में गति है। आत्मा मोक्षस्वरूप है। मुमुक्षु : कौन से गुणस्थान की बात है ? उत्तर : चौथे गुणस्थान की बात करते हैं। मुमुक्षु : लोग तो सातवें में कहते हैं ? उत्तर : दुनिया चाहे जो कहे। पण्डितजी ! यहाँ तो भगवान यह कहते हैं और ऐसा है। द्रव्य क्या चीज है ? आत्मद्रव्य क्या है ? आत्मद्रव्य अर्थात् अनन्त आनन्द, अनन्त ज्ञान आदि शुद्धस्वरूप का पिण्ड वह आत्मा, वह तो मुक्तस्वरूप ही है। आत्मा राग, शरीर, कर्म से बँधा हुआ है ? वस्तु, वस्तु बँधी हुई है ? यदि वस्तु बँधे तो वस्तु का अभाव हो जाए।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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