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________________ १९८ गाथा-८७ ज्ञानी अपने में इतने दृढ़ हैं कि तलवार पड़े, वज्र प्रहार हो, सारी दुनिया में फेरफार हो जाए तो भी अपनी दृष्टि से और अपनी स्थिरता से वे डिगते नहीं हैं। सुलटे में भी ऐसा है और उलटे में भी ऐसा है। ताकत तो इसकी है या नहीं? ___ अणुव्रत के पालन को मोक्षमार्ग कहना व्यवहार है। जैसे सोने की म्यान में तलवार होवे, उसे सोने की तलवार कहते हैं उसी प्रकार। तलवार तो लोहे की है। दृष्टान्त ठीक दिया है। समयसार का है, दृष्टान्त सब शास्त्रों के ही देते हैं, दृष्टान्त तो शास्त्र के ही देना चाहिए न? भले नाम न दे परन्तु शास्त्र का कथन होना चाहिए, घर की कल्पना (नहीं चाहिए)। स्वानुभव छूट जाए, तब साधक को निश्चय में अथवा द्रव्यार्थिकनय द्वारा शुद्ध तत्त्वों का विचार करना चाहिए। ऐसा कहते हैं। बहुत लम्बी बात है। उपयोग न जमे तो व्यवहारनय का भी विचार करना... शास्त्र पढ़े, उपदेश दे। भावना यही रखना कि मैं शीघ्र ही स्वानुभव में पहुँच जाऊँ। मुमुक्षु : राग है, उतना तो बन्ध है न? उत्तर : यथार्थरूप से जितना राग है, उतना बन्ध होता है न। चौथे, पाँचवें में अनुभव हुआ परन्तु अभी अबुद्धिपूर्वक राग है, अबुद्धिपूर्वक राग है। अनुभव से नहीं परन्तु जितना राग है, उतना बन्ध तो उसे भी है। छठवें गुणस्थान में थोड़ा बन्ध तो है न! है ? मुमुक्षु : राग साथ नहीं होता है? उत्तर : साथ में ही नहीं, वस्तुदृष्टि ऐसी है, स्थिर है परन्तु पूर्ण स्थिर नहीं, पूर्ण स्थिर होवे तो केवलज्ञान हो जाए। मुमुक्षुः उत्तर : होता है तथापि केवलज्ञान जैसी स्थिरता नहीं है। जब होता है, तब भी यथाख्यातचारित्र जैसी स्थिरता नहीं है, है ही नहीं। चौथे, पाँचवें, छठवें में यथाख्यातचारित्र जैसी स्थिरता होती ही नहीं। जितनी स्थिरता नहीं है, उतना अन्दर अबुद्धिपूर्व का राग हुए बिना (नहीं रहता)।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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