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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) की भक्ति एकदेश में श्रावक को भी होती है। समझ में आया ? श्रावक अर्थात् महापञ्चम गुणस्थानदशा । जिसे सर्वार्थसिद्धि के चौथे गुणस्थानवाले से जिसकी शान्ति बढ़ गयी है । आहा...हा... ! भले स्त्री, कुटुम्ब में पड़ा हो, राज्य में पड़ा हो, विषयभोग की वासना भी हो परन्तु उसकी वासना में मर्यादा है । अपना आनन्दस्वरूप भगवान आत्मा, अतीन्द्रिय निर्विकल्प आनन्दमय प्रभु आत्मा के अन्तर में स्वसन्मुख होकर निश्चयशुद्धसम्यग्दर्शन प्रगट हुआ है। कोई कहता है कि शुद्ध निश्चय समकित चौथे पाँचवें में नहीं होता... भाई ! तुझे समझ नहीं है, व्यवहार तो उपचार है । निश्चय स्वआश्रित उत्पन्न हो, उसे शुद्धरत्नत्रय कहते हैं । आहा... हा... ! क्या करे ? सब बदल गया, सब बदल गया। व्यवहाररत्नत्रय चौथे से सातवें तक व्यवहाररत्नत्रय । एक व्यक्ति फिर बारहवें तक कहता है, भाई ! १८१ यहाँ तो भगवान... वस्तु का स्वरूप... आत्मा परमानन्द की मूर्ति, परमात्मस्वरूप की अन्तर निश्चय - स्व आश्रय दृष्टि होना, स्व आश्रय दृष्टि हुई, उसका नाम निश्चय । पराश्रय दृष्टि भगवान की श्रद्धा आदि करना, वह पराश्रित दृष्टि व्यवहार है। अपने शुद्ध स्वरूप का ज्ञान, ज्ञान का ज्ञान करना, स्व-संवेदन (करना), वह निश्चय । शास्त्र आदि का ज्ञान करना, वह पराश्रित व्यवहार है । अपने स्वरूप में शुद्धस्वरूप की दृष्टि ज्ञानपूर्वक स्व में लीन होना, वह चारित्र है, निश्चयचारित्र है | श्रावक को भी निश्चयचारित्र का अंश होता है । कहो, समझ में आया ? ज्ञानचन्दजी ! कोई ऐसा कहता है - श्रावक को पञ्चम गुणस्थान में शुद्ध उपयोग नहीं है, शुद्ध निश्चयरत्नत्रय नहीं है। निश्चयरत्नत्रय आठवें और दसवें ... फिर कोई एक तो तेरहवें में कहता है। एक 'शरनाराम है' वह तो फिर तेरहवें में निश्चय (होता है और) बारहवें तक व्यवहार ( होता है - ऐसा कहता है ) । मुमुक्षु : कोई फिर पन्द्रहवें में कहे ? उत्तर : पन्द्रहवाँ है ही नहीं तो क्या कहेगा ? पन्द्रह गुणस्थान ही नहीं है । यहाँ तो अपने को शुद्धरत्नत्रय की भक्ति एकदेश श्रावक को भी होती है (- ऐसा कहना है) भले ही स्त्री, कुटुम्ब, परिवार, राजपाठ में पड़ा हो... समझ में आया ? पड़ा नहीं... अपना आत्मा शुद्ध भगवान आत्मा परमात्मा निर्विकल्प स्वभाव से सम्पन्न प्रभु
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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