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________________ १६८ गाथा-८५ केवलज्ञानी की स्तुति किसे कहते हैं ? तो कहते हैं कि तेरा अनन्त गुणरूप एक द्रव्य अतीन्द्रिय स्वरूप का अनुभव कर, यह केवलज्ञान की स्तुति है। जवाब यह दिया है। मैं तो केवली परमात्मा भगवान केवली की स्तुति पूछता हूँ। पण्डितजी! ऐसा उसमें आया न? केवलज्ञान की स्तुति पूछता हूँ, प्रभु! केवलज्ञान की स्तुति तो हम उसे कहते हैं, जो इंदिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं। आहा...हा...! भाई ! तेरा आत्मा राग और विकल्प से पार अधिक / भिन्न चिदानन्द एकरूप स्वभाव है – ऐसी दृष्टि का अनुभव करना, उसे ही हम केवलज्ञानी की स्तुति कहते हैं। परन्तु मैं पूछता हूँ कि भगवान की स्तुति किसे कहते हैं ? और आप ऐसा कहते हो? सुन तो सही ! आहा...हा... ! वे कहते हैं, जब व्यवहार की बात चलती है तब निश्चय की बात करते हैं । वे, तलोद... तलोद में पहले आते थे। भगवान सुन न भाई! भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव को पूछा कि महाराज! आप केवलज्ञानी की स्तुति किसे कहते हो? (तो कहते हैं कि) हम केवलज्ञानी की स्तुति को उसे कहते हैं कि अपना ज्ञानानन्दस्वभाव राग से अधिक अर्थात् भिन्न, विकल्प से भिन्न, निमित्त से भिन्न और कर्म से भी भिन्न तथा अपने अनन्त गुण से अभिन्न द्रव्य, ऐसा अनुभव करनेवाला केवली की स्तुति करता है – ऐसा हम नहीं, सर्वज्ञ ऐसा कहते हैं । आहा...हा...! यह सर्वज्ञ कहते हैं। कौन कहते हैं ? केवली बोले ऐम'। भगवान ऐसा कहते हैं कि हमारी स्तुति का अर्थ क्या? कि तेरे अनन्त गुण में एकाकार होना, वही केवली की स्तुति है। समझ में आया? स्तुति हुई न? (अब) आराधना... भगवान आत्मा विकल्प से हटकर, भगवान पूर्णानन्द की ओर की आराधना हुई, सेवन हुआ, स्वभाव सन्मुख की लीनता हुई तो कहते हैं कि वही अपना विनय करता है, वही निश्चय वन्दना, गुरु की वन्दना है। तख्तमलजी! यह बात अद्भुत, भाई! भगवान ! तेरी तो सर्वस्थिति तुझमें ही समा जाती है। परमेश्वर ऐसा कहते हैं। परमेश्वर ऐसा कहते हैं कि हम यह कहते हैं । आहा...हा...! जिनको एक समय में तीन काल-तीन लोक स्वयं की पर्याय में ज्ञात हो गये हैं, पर्याय में ज्ञात हो गये, हाँ! एक गुण की एक पर्याय एक समय में तीन काल-तीन लोक का ज्ञान एक समय में आ गया। उन
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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