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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) १६३ और अतीन्द्रिय आनन्द से प्रतपन ऐसी दशा प्रगट हुई, उसका नाम तप है । जहाँ आत्मा वहाँ अनन्त गुण प्रगट (हो जाते हैं) । समझ में आया ? आहा...हा...! भगवान आत्मा एक स्वरूप से प्रभु अन्तर्मुख दृष्टि का आश्रय भगवान को बनाया तब राग-द्वेष का अभाव होने पर निश्चय अहिंसाव्रत भी हो गया । अहिंसक परिणाम हुए। अपना भगवान आत्मा पूर्णानन्द को पकड़ कर दृष्टि में लिया तो अहिंसक परिणाम / रागरहित परिणाम उत्पन्न हुए। रागरहित परिणाम उत्पन्न हुए, वही अहिंसा, सत्यव्रत है । अहिंसा, सत्यव्रत है। अहिंसा का सच्चा व्रत है । दया के परिणाम, वह अहिंसा का सत्यव्रत नहीं है । आहा...हा... ! अहिंसा का सत्य (व्रत), और अहिंसा का झूठा (व्रत) । भगवान तेरी चीज ऐसी है, भाई! आत्मा एक समय में पूर्ण शुद्ध ध्रुव को अन्तर में सन्मुख होकर दृष्टि करने से दर्शन - ज्ञान - चारित्र हुए और राग की उत्पत्ति नहीं हुई । अन्दर में एकाकार होने से उतना सच्चा अहिंसाव्रत हुआ। समझ में आया ? पर तरफ का लक्ष्य (करके) जो अहिंसा का शुभभाव (होता है), वह अहिंसा सत्यव्रत नहीं है, वह झूठा व्रत है। झूठे का अर्थ वह शुभभाव है उपचार व्यवहार है। व्यवहार उपचार है, निश्चय से झूठ है, सत्यव्रत भगवान आत्मा... ! अरे ...! लोगों को यह कठिन पड़ता है, हाँ ! यह पर की दया का भाव... भाई ! वह तो राग है न भगवान ! उस राग में स्वरूप की हिंसा होती है। दुनिया के साथ मेल न खाये तो कोई दिक्कत नहीं है । बात तो ऐसी है । भगवान आत्मा ऐसे परलक्ष्य में जाता है तो विकल्प उत्पन्न होता है, भाई ! विकल्प उत्पन्न होता है तो उतनी निर्विकल्प स्वरूप की हिंस्यते... हिंस्यते ... हिंस्यते - हिंसा हो गयी। (लोगों को) यह बात नहीं रुचती, कुछ-कुछ करें तो उसमें कुछ है, कुछ है परन्तु राग नहीं करना और स्वभाव की एकाग्रता करना, उसमें सुख है । आहा... हा... ! यह दया धर्म अहिंसक परिणाम होना, वह दया धर्म का मूल है। उसने तो बाहर की बात कहना I तुलसीदास ने! यह कहा वहाँ था ? सब सुना है न, साठ वर्ष से सुनते हैं, 'दया, धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान, तुलसी दया न छोड़िये, जब तक घट में प्राण ।' यह तो हम दुकान पर बैठते थे, तब बहुत बाबा निकलते थे, बहुत सुना । यह भगवान सर्वज्ञ परमेश्वर ने कहा वह आत्मा, उसकी अन्तर में दृष्टि करने से
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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