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________________ १५८ गाथा-८५ के सर्व गुण उसके भीतर ही रहते हैं। भगवान परिपूर्ण द्रव्य की जहाँ अनुभव-दृष्टि हुई तो द्रव्य में अनन्त गुण रहते हैं तो अनन्त गुण भी उसमें आ गये। मिश्री को ग्रहण करने से मिश्री के सर्व गुण ग्रहण में आ जाते हैं। ठीक है ? मिश्री की डली हाथ ले तो मिश्री में जितने गुण हैं, वे सब आ जाते हैं। __ आम का ग्रहण करने से, दूसरा दृष्टान्त दिया है, भाई! आम... आम का ग्रहण करने से आम का स्पर्श गुण आदि का ग्रहण हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा को ग्रहण करने से आत्मा के समस्त गुणों का ग्रहण हो जाता है। कोई गुण बाकी नहीं रहता। विशेष कहेंगे। (श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव!) . गणधर भी जिन्हें वन्दन करते हैं अज्ञानी कहता है कि चारित्र में कितना सहन करना पड़ता है ? बहुत परीषह सहन करने पड़ते हैं, जैसे - गर्म पानी पीना, नङ्गे पैर चलना, रात्रि में आहार नहीं करना, देखकर चलना इत्यादि; इस प्रकार भगवान का मार्ग तो तलवार की धार जैसा अर्थात् दुःखरूप है, दूध के दाँत से लोहे के चने चबाने जैसा है। बापू! तुझे पता नहीं है, तुझे सत्पुरुषों के चारित्र के स्वरूप की खबर नहीं है, क्योंकि तूने तो चारित्र को दुःखरूप माना है। जबकि चारित्र तो सुखरूप दशा है। जहाँ अन्दर में स्वरूप की सम्यक् दृष्टि हुई, आनन्दमूर्ति आनन्द का धाम मेरी वस्तु है - ऐसा जहाँ अनुभव हुआ, वहाँ उसमें आनन्दमय रमणता होती है अर्थात् आनन्दसहित सुखाकारस्थिरता होती है, वह चारित्र है और वह तो सन्तों की दशा ही है। (-प्रवचन-रत्न चिन्तामणि, ३/५६)
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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