SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) स्वच्छता का यह सब रूप है, पानी की स्वच्छता का यह सब पूरा रूप है। ऐसे भगवान आत्मा कैवल्यदशा की पर्याय जहाँ प्रगट हुई, उसे देखने से लोकालोक सम्बन्धी का ज्ञान, वह अपना ज्ञान वहाँ है, उस ज्ञान को देखता है । आहा... हा... ! समझ में आया ? ऐसा आत्मा, बापू ! जिसकी एक समय की पर्याय, लोकालोक के समक्ष देखे बिना यहाँ देखने से ज्ञात हो जाए, ऐसी-ऐसी अनन्त पर्यायों का एक गुण, ऐसे-ऐसे अनन्त गुण कापिण्ड एक द्रव्य, उसकी क्या बात करना ! जिसे धर्म करना है, वह करनेवाला कैसा ? - उसकी इसे खबर नहीं होती । करनेवाला आत्मा, परन्तु वह कैसा और कहाँ, किस प्रकार ? यह अपने को कुछ पता नहीं है । अब पता नहीं है तो करेगा क्या वह ? समझ में आया ? इसका गुजराती है न ? इसमें डाला है न हमने जहाँ आत्मा तहाँ सकल गुण, केवली बोले ऐम । प्रगट अनुभव आपनो निर्मल करे सो प्रेम ॥ १५५ चैतन्यप्रभु! चेतन सम्पदा रे तेरे धाम में । हे चेतनप्रभु ! चेतन सम्पदा रे तेरे धाम में । यह लोकालोक की सम्पदा यहाँ है। वहाँ कहाँ लोकालोक उसके घर रहा । वह कहीं ज्ञान की पर्याय में आया है ? और ज्ञान की पर्याय में लोकालोक यहाँ आया है। वह तो ज्ञान की पर्याय का स्व-पर प्रकाशक सामर्थ्य में स्वयं देखते हुए वह ज्ञात हो जाता है । उसे जानता है, कहना व्यवहार है । आत्मज्ञानमय सर्वज्ञता है । आहा...हा... ! अरे ! ऐसा आत्मा ! उसे महिमा से दृष्टि में नहीं लिया और इसे महिमा राग की पुण्य की, निमित्त की और इस धूल की, व्यवहाररत्नत्रय के विकल्प की महिमा (रही), उसे यह एक क्षण में उपाधि का मेल, उसकी महिमा ( रही)। भगवान इतना महान महिमावन्त, इसे रुचा नहीं, अभी नहीं रुचता उसका परिणमन कब होगा ? कहते हैं न? एकान्त हो जाता है । अरे.... भगवान! सुन न भाई ! जाने दे न! अन्दर में जाने दे न! इसका नाम एकान्त है। पण्डितजी ! है न ? आहा... हा...! भगवान तेरे घर की बात है भाई ! उसके अपने घर की बात है बापू ! यह किसी की बात नहीं है। समझ में आया ? इसे पकड़ना है और इसे जानना है और इसे ग्रहण करना है । कोई करा दे - ऐसा नहीं है। तीन लोक के नाथ तीर्थङ्कर भी क्या करेंगे ? अनन्त
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy