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________________ १४८ गाथा-८४ -झगड़े, लहुलुहान ! लोही कहते है न? फिर चढ़ गया, वह विजेता था न? उसके ऊपर बैठा, मुँह ऐसा... ऐसा करे परन्तु काटे नहीं... । दूसरा चला गया। कल 'जैन सन्देश' में आया है। पशु में भी इतना (स्वीकार आता है कि) वह हार मानता है। आत्मा जब अपना विजेता हुआ तो सब हार गये। राग, पर्यायभेद सब हार गये। भगवान आत्मा... मैं अकार्यकारण स्वभाववन्त हूँ, मैं किसी के कारण से उत्पन्न पर्याय हूँ ऐसा नहीं, पर्याय, हाँ! और मेरी पर्याय किसी के कार्य में कारण होवे – ऐसा मैं हूँ ही नहीं। ओ...हो...! आत्मा के विजेता का यह लक्षण है। संसारदशा में आत्मा... कषाय के उदय से शुभाशुभ उपयोगवाला होता है। यह योग और उपयोग ही लौकिक कार्यों में निमित्त है। कुम्हार घड़ा बनाता है वहाँ मिट्टी घड़े का उपादान कारण है, कुम्हार के मन-वचन-काया का योग और अशुद्ध उपयोग निमित्तकारण है। यह तो ठीक। शुद्ध आत्मा में न योगों का कार्य है, न कोई शुभ या अशुभ उपयोग है। भगवान आत्मा, अपनी जहाँ दृष्टि-ज्ञान और रमणता अपने में करे तो वहाँ न योग है, न इच्छा है । समझ में आया? __आत्मा स्वभाव से अकर्ता और अभोक्ता है। भगवान आत्मा तो राग का भी कर्ता-भोक्ता स्वरूप में नहीं है । पर का कर्ता तो कहाँ है ? (लोगों में) गजब बात चलती है। कोई पूछनेवाला ही नहीं होता, अरे...रे...! प्रभु! करे किसे? भगवान आत्मा, राग को करे? क्या राग उसकी शक्ति में पड़ा है ? उसके स्वभाव की खान में राग पड़ा है ? राग का कर्ता होता है तो उसका अर्थ हुआ कि पूरा द्रव्य विकारी है (परन्तु) ऐसा है नहीं। भगवान आत्मा शुद्ध अनाकुल आनन्दकन्द है, वह तो राग का भी कर्ता और राग का भोक्ता वस्तु में है ही नहीं। आहा...हा...! समझ में आया? तो पर का कर्ता और भोक्ता तो (कहाँ से होगा)? आहा...हा...! पर की दया पालने का शुभभाव हो परन्तु वह शुभभाव स्वभाव में नहीं है और उस शुभभाव से उसमें कार्य नहीं होता। उस शुभभाव से पर में दया का कार्य नहीं होता और शुभभाव से अपनी निर्मल पर्याय का कारण शुभभाव हो और कार्य हो - ऐसा भी नहीं है। समझ में आया? आहा...हा...! सर्वज्ञ नहीं, वस्तु का स्वरूप ऐसा है। सर्वज्ञ ने कुछ किया है ? बनाया है ? जैसा है, वैसा सर्वज्ञ ने जाना; जाना वैसा वाणी में आया; आया वैसा है। आहा...हा...!
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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