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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) बनाया है । दिगम्बर सन्तों ने तो तत्त्व का सार दोहन करके सार-सार निकाला है। योगसार – भगवान आत्मा परिपूर्ण वस्तु स्वरूप अखण्ड एकरूप है, उसमें यह योग है, वह पर्याय है। योगसार वह पर्याय है परन्तु योगसार पर्याय का विषय द्रव्य है । समझ में आया ? योगसार, वह पर्याय है परन्तु वस्तु एकरूप त्रिकाल ज्ञायकस्वभावभाव परमस्वरूप, जिसमें कोई उत्पाद - व्यय नहीं है । ध्रुव शाश्वत् सत् ध्रुववस्तु में एकाकार, उसका लक्ष्य करके, ध्येय बनाकर, उसमें श्रद्धा-ज्ञान और स्थिरता करना, उसका नाम यहाँ पर भगवान, योगसार कहते हैं । व्यवहार योगसार निकाल डालते हैं । जो विकल्प - व्यवहार बीच में है, वह सार नहीं है - ऐसा कहते हैं। समझ में आया ? वह कहते हैं, देखो ! १३९ - यह आत्मा विमल महंतु, मलरहित शुद्ध और महान... अप्पा महंतु-महान परमात्मा है। एक सैकेण्ड के असंख्य भाग वह तो अनन्त परमात्मा का पेट अन्दर में । जो सर्वज्ञ या सिद्ध परमात्मा होते हैं - ऐसी-ऐसी परमात्मदशा तो जिसके गर्भ में ध्रुव में अनन्त पड़ी है - ऐसा वह आत्मा-परमात्मा ध्रुवरूप शाश्वत्, उसका श्रद्धान करना। पिच्छियइ शब्द लिया है। पिच्छियइ अर्थात् देखना; देखना अर्थात् श्रद्धान करना । वह श्रद्धा ऐसे के ऐसी नहीं, कल्पना नहीं। वह श्रद्धा स्वसन्मुख होकर, परसन्मुखता के भेद के विकल्प से निराली होकर अपने शुद्ध अन्तर्मुख स्वभाव में देखना अर्थात् उस स्वभाव की प्रतीति करना, उसका नाम सम्यग्दर्शन कहा जाता है। यह पिच्छियइ शब्द से लिया है। श्रद्धान करना, वह सम्यग्दर्शन है । ऐसा जानना, वह ज्ञान है... ऐसा जानना कि भगवान आत्मा परिपूर्ण स्वरूप को ज्ञेय करके, वह वस्तु अखण्ड एकरूप है, उसे ज्ञेय करके उसका ज्ञान करना, उसका नाम मोक्ष के मार्ग का दूसरा अवयव - ज्ञान कहा जाता है। समझ में आया ? भगवान आत्म परम पारिणामिकस्वभावभावस्वरूप त्रिकाल ... त्रिकाल... त्रिकाल ... असंख्य प्रदेश का पिण्ड किन्तु वह असंख्य भेद भी नहीं, एकरूप है। उसमें असंख्य प्रदेश, है, उसमें अनन्त गुण परन्तु गुणभेद नहीं, एकरूप, दृष्टि हुए बिना एकाकार नहीं होता। एकाकार हुए बिना एक रूप दृष्टि नहीं आती। समझ में आया ? कहते हैं कि भगवान अप्पा विमल महंतु महंतु (अर्थात्) वह तो महान आत्मा
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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