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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) १३७ मुमुक्षु : अनुभव और वह तीर्थ ! उत्तर : वह आत्मानुभव हुआ न ! अनुभव ही सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र है, वह तीर्थ है - ऐसा कहते हैं । मुमुक्षु : जीव तीर्थ है न! उत्तर : वह जीव तीर्थ बाद में, अभी तो मूल तीर्थ यह है, वह तीर्थ तो अनादि है, वह तीर्थ तो अनादि है । यह सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र प्रगट करे तब उस अनादि तीर्थ की श्रद्धा हुई। समझ में आया ? सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र उत्तम तीर्थ है - ऐसे तीर्थ का पिण्ड प्रभु द्रव्य, वह तो त्रिकाल तीर्थ है परन्तु उसके सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र प्रगट किए, वह उत्तम तीर्थ है। उसमें स्नान करने से मलिनता का नाश होता है। उस तीर्थ की यात्रा करने से बन्ध का नाश होता है । कहो, समझ में आया ? बाहर के तीर्थ में तो शुभभाव का बन्ध होता है । चाहे तो सम्मेदशिखर की यात्रा हो और चाहे तो गिरनार की हो; शुभभाव है, पुण्य बँधता है, पुण्य बँधेगा; संवर- निर्जरा नहीं ( होंगे ) । I मुमुक्षु : शाश्वत् तीर्थ है। उत्तर : चाहे जो हो, आत्मा शाश्वत् तीर्थ है। जहाज है, वह सम्यग्दर्शन-ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीन आत्मिक धर्मों से रचित है। लो, यह तीन धर्म से रचित तीर्थ है। इस जहाज पर जो आत्मा आप चढ़कर उस जहाज को अपने ही आत्मारूपी समुद्र पर चलाता है, वह आप ही मोक्षद्वीप को पहुँच जाता है, वह द्वीप भी आप ही है । अपना पूर्ण भाव कार्य है, अपूर्ण भाव कारण है। इस तरह जो कोई निश्चित होकर आत्मा का सतत् अनुभव करता है, वही परमानन्द का स्वाद पाता हुआ व कर्मों का संवर व उनकी निर्जरा करता हुआ उन्नति करता जाता है, यही कर्तव्य है । ( श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव !)
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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