SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ गाथा-८१ परवस्तुओं से विशेष ममता का त्याग करना, वह ब्रह्मचर्य तप है। तप के भेद हैं न, तप के? धर्मध्यान का एकान्त में अभ्यास करना, वह ध्यान तप है। इन बारह प्रकार के तपों में वर्तते हुए अपने आत्मा को तपना सो ही निश्चय तप है। लो, यह अनशनादि सब इसमें थोड़ा-थोड़ा ले लिया है। समझ में आया? ___अपने आत्मा को सर्व परद्रव्यों से व परभावों से भिन्न अनुभव करना सो निश्चय प्रत्याख्यान है। अभिप्राय यह है कि जब यह उपयोग अपने ही आत्मा के शुद्धस्वरूप में रमण करके स्वानुभव में रहता है, तब ही वास्तव में रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग है। तप ही यद्यपि संयम है, शील है, तप है, प्रत्याख्यान है, अतएव आत्मस्थ रहना योग्य है। यह प्रत्येक का व्यवहार, निश्चय उतारा है। दृष्टान्त दिया है, देखो, समयसार का आधार (दिया है)। कुन्दकुन्दाचार्यदेव भी ऐसा कहते हैं - आदा खुमज्झ णाणे, आदा मे दंसणे चरित्ते य। आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे॥२७७॥ कुन्दकुन्दाचार्यदेव कहते हैं निश्चय से मेरे ज्ञान में... आत्मा है। विकल्प में आत्मा है – ऐसा नहीं । ज्ञान, ज्ञान – सम्यग्ज्ञान में मेरा आत्मा ही समीप है। मेरे सम्यग्ज्ञान में आत्मा ही समीप है। मेरे दर्शन में आत्मा ही समीप है। चारित्र में आत्मा ही समीप है और जब मैं रत्नत्रय में रमण करता हूँ, तब आत्मा ही के पास पहुँचता हूँ। समझ में आया? त्यागभाव में रहना भी आत्मा में तिष्ठना है। त्यागभाव में रहना भी आत्मा में तिष्ठना है। प्रत्याख्यान किया न, प्रत्याख्यान? आस्रवभाव के निरोधरूप संवरभाव में अथवा एकाग्र योगाभ्यास में भी आत्मा ही सन्मुख रहता है। लो, यह आदा मे संवरे जोगे अपने व्याख्या आ गयी है। परभावों का त्याग ही संन्यास है जो परयाणइ अप्प परू चयइ णिभंतु। सो सण्णासु मणेहि तुहुँ केवलणाणिं उत्तु॥८२॥
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy