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________________ १०५ योगसार प्रवचन (भाग-२) मुमुक्षु : उसे कोई सम्बन्ध नहीं है? उत्तर : है न! वह खेल आत्मा का नहीं है और अपने में राग होता है, वह भी मेरा स्वरूप नहीं है। मैं चिदानन्दस्वरूप हूँ – ऐसी दृष्टि करने का नाम सम्यग्दर्शन है। मुमुक्षु : खाना-पीना या नहीं? उत्तर : कौन खाये, पीवे? कहा न यह? यह क्या आया? यह जड़ खाये, पहने और स्नान, तेल मर्दन (करे), यह तो गुजराती है, गुजराती किया है न? हिन्दी में है। अपने हिन्दी में है या नहीं? यह तो हिन्दी का अनुवाद है। मुमुक्षु : खाना या नहीं खाना? उत्तर : वही कहा यह। मैंने खाया, मैंने भोग किया, मैं पर का स्वामी था, पर स्वामी होता है। पर स्वामीपन ऐसा नहीं मानता और तू मूढ़ यह क्या मानता है ? (ऐसा) कहते हैं। लक्ष्मी पर की। कोई ऐसा भी नहीं मानता कि यह माणिकचौक' में जवाहरात है, वहाँ कोई निकले वह मानता होगा कि यह मेरी लक्ष्मी है? यह ऐसा है। है ? 'माणिकचौक' में जवाहरात की दुकान होवे और लोग निकलें तो ऐसा मान लें, यह मेरे जवाहरात हैं ? ऐसे ही यह मूढ़ जहाँ निकला वहाँ (अपना मान लिया), पागल कहें, वैसे यह जहाँ निकले वहाँ लक्ष्मी दिखाई दी, स्त्री, पुत्र, परिवार (मेरे), यह तो परवस्तु है, तेरी कहाँ है? मूढ़। मुमुक्षुः ................ उत्तर : वे कहें परन्तु भाषा ही कहाँ उनकी है। पुद्गल कहे, लड़का कहाँ कहता है? वह तो पुद्गल की भाषा है। निहालभाई! यह अद्भुत नाटक ! यह तो शास्त्र में सब बात है। पहले के दिगम्बर गृहस्थ हुए - बनारसीदास, टोडरमलजी, भागचन्दजी, द्यानतराय, दौलतराम, दीपचन्दजी, बड़े सम्यग्ज्ञानी उनकी सभी बातें सत्य हैं। इन दो सौ वर्षों में बहुत गड़बड़ हो गयी है। अभी तो बहुत गड़बड़ हो गयी है, बहुत गड़बड़। यह बात नहीं मानते। मिथ्या है – ऐसा कहते हैं। मैंने खाया, मैंने भोगा (ऐसा) पर का स्वामी हुआ। पर का स्वामी भी ऐसा तो नहीं मानता जैसे कि राजा, नौकर का स्वामी है (तथापि) उसके घराने से
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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