SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० गाथा - ८० त्याग धर्म। माया के अभाव से उत्तम आर्जव गुणधारी - सरल। असत्य ज्ञान के अभाव से उत्तम सत्य धर्म का धारक है । वहाँ सत्यस्वरूप का धारक ही आत्मा है। लोभ के अभाव से उत्तम शौच गुण धारक पवित्र है । आत्मा अन्दर सन्तोषस्वरूप ही भगवा आत्मा है। उसकी दृष्टि करके स्थिर होना, वही आत्मा के कल्याण का मार्ग है । असंयम के अभाव से स्वरूप में रमणतारूप उत्तम संयमगुणधारी है। लो, उत्तम संयमगुणधारी। दश प्रकार के धर्म की व्याख्या चलती है । सर्व इच्छाओं का अभाव होने से आत्मा का एक शुद्ध वीतरागभाव से तपना... देखो, सर्व इच्छाओं का अभाव होने से आत्मा का एक शुद्ध वीतरागभाव से तपना वह उत्तम तप गुण है। बाहर के तप तो व्यवहार है। अपनी वीतरागदशा में एकाकार होकर शुद्धता से तपना, शुद्धता का प्रतपन करना, उसका नाम उत्तम (तप) गुण है। यह आत्मा परम तपस्वी है । इस अपेक्षा से तो आत्मा परम तपस्वी त्रिकाल है । उसका ध्यान करना, उसे परम तपस्वी कहते हैं । यहाँ अन्य लोग त्याग की बात करते हैं न? यह आत्मा अपनी शुद्ध परिणति..... निर्मलदशा। रागरहित शुद्ध पूर्ण स्वभाव में एकाग्र होकर शुद्ध पर्याय द्वारा आत्मानन्द स्वयं को ही देता है... लो, अपनी शुद्धपरिणति को अपनी दशा में स्वयं रखता है, वह ही उत्तम त्यागधर्म है। लो, यह त्यागधर्म की व्याख्या । अन्य लोग कहते हैं न त्याग ? समझ में आया ? दश प्रकार के त्यागधर्म में ऐसा कहते हैं यह त्याग । पुस्तक छोड़ना, किसी को ज्ञान देना - ऐसा देना, वह त्यागधर्म है, वह सब तो व्यवहार की बातें है, वह तो विकल्प उत्पन्न होता है न? यह पुस्तक दें, इसे ज्ञान होवे तो ठीक, ऐसा (विकल्प) निश्चय .... निश्चय -त्यागधर्म की व्याख्या यह है कि अपने शुद्धस्वरूप पूर्णानन्द प्रभु में एकाकार होकर शुद्ध दशा को प्रगट करना, इसमें अशुद्धता का त्याग (होता है), उसे त्यागधर्म कहा जाता है। आहाहा...! समझ में आया ? इस आत्मा के उत्तम आकिञ्चन्य गुण है । क्या (कहते हैं ) ? इस आत्मा में अन्य परमात्माओं का, पुद्गलद्रव्य का धर्म, अधर्म, काल, आकाश का अभाव है, यह आकिञ्चन्य गुण है। मेरे स्वरूप में कोई है ही नहीं। राग नहीं, शरीर नहीं, कर्म नहीं, परद्रव्य नहीं - ऐसी अन्तर आत्मा में भावना करना, उसका नाम आकिञ्चन्य - भाव
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy