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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) ९९ हैं जोगी खुमाण ! आप हमारे तो मेहमान हैं। कोई भी व्यक्ति पुलिस को साथ लेकर (नहीं जाये) यहाँ से वह बाहर तक कुछ न करे उसके साथ रहो - ऐसा कि कोई विरोध न करे । उसे जिमाया, मेहमानगिरी करे, कोई बीच में विरोध न करे। समझ में आया ? विद्रोही (सही).... परन्तु किस काम से आये हैं ? हैं ? मातम में आये हैं, उन्हें नहीं होता, इतना विवेक उसे है । यहाँ कहते हैं कि आत्मा के स्वभाव का भान और जितना विरोधभाव उत्पन्न होता है, उसे स्वयं भलीभाँति जाने । बंध का कारण तू है, आदर नहीं दे। समझ में आया ? मुमुक्षु - शुभभाव बारोट है ? - उत्तर - बारोट है। ऐसा ही योग है न यह तो ? योग आया न ? योगा खुमाण, अभी नहीं आये थे ? तुम्हारे इसमें कोई आये थे, इस गाँव के, हाँ! आये थे न वे कहते थे। मेहमान आये थे। इसी प्रकार इस आत्मा के पुण्य-पाप के भाव बारोट हैं। समझ में आया ? मुमुक्षु - लोग पुण्य करते हैं, पाप छोड़कर । उत्तर - कौन करता और कौन छोड़ता है ? व्यर्थ का मूढ़ है। यह शरीर छूटेगा तो फू...... होकर चला जायेगा । कोई तेरा शरणभूत नहीं है । जायेगा ऐसा का ऐसा । ये सब रजकण ऐ...ऐ... वह ( जायेंगे) । समझ में आया ? कहते हैं, एकदेश भी आत्मा की शुद्धता के रत्नत्रय का अंश प्रगटे, निर्मल आत्मा के आश्रय से.... वह बंध नहीं है। वह बंध का कारण है ही नहीं। बहुत लिया है, नीचे भी बहुत अच्छा लिया है। जब साधु ध्यानस्थ हों, तब निवृत्ति मार्ग में चढ़ जाते हैं । ठेठ... ठेठ... सब लिया है, बहुत लिया है। अपने ऊपर से बात आ गयी। कहो, यह चौदह हुई । (अब) १५ (गाथा) ✰✰✰ पुण्यकर्म मोक्षसुख नहीं दे सकता अह पुणु अप्पा वि पाव विणहि पुण्णु वि करइ अससु । सिद्धसहु पुणु संसार भमेसु ॥ १५ ॥
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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