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________________ गाथा - ११ कण और रजकण.... राग का, सूक्ष्म शुभराग का कण और रजकण.... राग कण और वे आत्मा नहीं होते। क्या कहते हैं ? देखो ! रजकण, ७४ वे पदार्थ आत्मा नहीं हो सकते। भगवान ज्ञान ज्योति चैतन्य प्रभु, वह राग का विकल्प – दया, दान का हो या परमाणु का रजकण हो, वे परपदार्थ कहीं आत्मा हो सकते हैं ? राग विभाव, वह स्वभाव हो सकता है ? रजकण, वह जीव हो सकता है ? समझ में आया ? कहो, प्रवीणभाई ! यह तो समझ में आवे ऐसा है या नहीं ? देखना पड़े लो, इसे भी वह.... परन्तु भगवान चैतन्यसूर्य है न अन्दर ? कहो ! स्फटिकरत्न है, स्फटिकरत्न । अब उसमें साथ में काला फूल, लाल फूल हो, वह काला-लाल फूल स्फटिकरूप हो जाता है ? और उसमें काला - लाल की थोड़ी झांई पड़ी हुई दिखती है, वह भी काली-लाल झांई स्फटिकरूप हो जाती है ? समझ में आया ? 'ज्यों निर्मलतारे स्फटिक की, त्यों ही जीव स्वभाव रे .... श्री जिनवीर धर्म प्रकाशियो, प्रबल कषाय अभाव रे.... ज्यों निर्मलता रे स्फटिक की ।' जैसे, स्फटिक निर्मल पिण्ड है, वैसे ही भगवान आत्मा निर्मल आनन्द और ज्ञान का कन्द आत्मा है। समझ में आया ? उसमें साथ में लाल-काला फूल हो तो वह लाल-काला फूल कहीं स्फटिकरूप हो जाता होगा ? और उसमें जरा काली-लाल झांईं पड़ी, वह स्फटिकरूप होती है ? वह स्फटिकरूप धारण करती है ? काला-लाल वह कोई स्फटिकरूप धारण करता है ? इसी प्रकार भगवान आत्मा से बाह्य पदार्थ, वे आत्मा नहीं हो सकते। वे पुण्य-पाप के विकल्प और शरीरादि.... स्फटिक जैसा भगवान आत्मा, उसरूप नहीं हो सकते । कौन ? वे विभाव, शरीर और वाणी... आहा... हा... ! उनरूप आत्मा नहीं हो सकता । उनरूप आत्मा नहीं हो सकता । असर - परस डाला है। क्या कहा ? वे अप्पाणु ण होहि डाला है न ? अर्थात् वे पदार्थ आत्मा नहीं हो सकते और उनरूप आत्मा नहीं हो सकता..... अरस-परस । आहा...हा... ! क्या कहा ? भाई ! यह तो अकेली भेदज्ञान की बात है। समझ में आया? यह तो मक्खन निकालकर यह अकेला रखा है। भगवान आत्मा.... ! यह देहादि रजकण तो मिट्टी है, वाणी मिट्टी है, अन्दर शुभ -अशुभराग (होता है), वह शुभ -अशुभराग, आत्मा हो सकता है ? और आत्मा उसरूप
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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