SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा - १० एक मनुष्य होता है, नहीं वह रूप धारण करता ? सिर पर अमुक करे और ऐसा (करे) । मुसलमान बहुत करते हैं। सिर पर कपड़ा ओढ़ते हैं और कपड़ा बाँधते हैं और ऐसा करते हैं। वे तो मानते हैं कि मैं तो मनुष्य हूँ, मैं यह नहीं । हाथी जैसा रूप धारण करे ऐसे सिर पर सींग नहीं लगाते ? हैं ? हाथी का मुखौटा डालते हैं - ऐसा करते हैं । मैंने देखा था। एक बार वहाँ उपाश्रय के पास निकला था, उपाश्रय के पास निकला था । सब एक-एक बार को ठीक से देख लिया है, वह व्यक्ति निकला था और सिर पर हाथी का मुखौटा... यह देखो परन्तु वह मानता होगा कि मैं हाथी नहीं । हैं ? इसी प्रकार इस शरीर के मुखौटे के ऊपर लाल चमड़े के, यह वाणी धूल की और यह मानता है कि मेरी.... अब इसे करना क्या ? और उसमें पुण्य और पाप के भाव उत्पन्न हों, वह बारीक चमड़े के टुकड़े हैं, वे कोई आत्मा का स्वभाव नहीं है । विभाव... विभाव, विकार.... सदोष, उपाधि है, उसे अपना स्वरूप माने; विकृतरूप को अविकृत माने...... विकृतरूप कहा न ? हाथी को, मनुष्य था, उसे अपना माने ऐसे आत्मा में होनेवाली विकृतदशा, शुभाशुभभाव के सम्बन्ध और उसका फल, उसे अपना माननेवाला विकृत को ही अविकृत मानता है, वह विकृत को कैसे छोड़ेगा ? इसलिए विकृत में बारम्बार भ्रमण करेगा। लो, यह दशवीं गाथा हुई। ७२ ✰✰✰ ज्ञानी पर को आत्मा नहीं मानता है देहादिउ जे परकहिया ते अप्पाणु ण होहिं । इउ जाणेविणु जीव तुहुँ अप्पा अप्प मुणेहिं ॥ ११ ॥ देहादिक जो पर कहे, सो निज रूप न मान । ऐसा जान कर जीव तू, निज रूप हि निज जान ॥ अन्वयार्थ – ( देहादिउ जे पर कहिया ) शरीर आदि जिनको आत्मा से भिन्न - कहे गये हैं। (ते अप्पाणु ण होहिं ) वे पदार्थ आत्मा नहीं हो सकते व उन रूप आत्मा नहीं हो सकता अर्थात् आत्मा के नहीं हो सकते (इउजाणेविणु) ऐसा समझकर
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy