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________________ ४८२ गाथा - ६७ करना चाहते हैं। क्या कहते हैं ? इन्द्रिय के सुख के लोलुपी और अतीन्द्रिय सुख के अभिलाषी नहीं... अतीन्द्रिय सुख जो भगवान आत्मा की जिसे रुचि नहीं और इस इन्द्रियसुख का लोलुपी है, (वह) मन की कल्पना ऐसी करता है, मानो मुझे सुख स्वर्ग मिल गया हो – ऐसा मान लेता है । यह भी हम बड़े सेठ हैं, पैसेवाले... देखो न ! इनके समक्ष तो बात पूछते हैं। भले इनके लड़के पैसे हैं, परन्तु ये पैसेवाले कहलाते हैं न? 'पूनमचन्द मलूकचन्द'... 'पूनमचन्द मलूकचन्द' कहलाते हैं या वहाँ ' पूनमचन्द ' बिना पिता का कहलाता होगा। बापू ! समझने जैसे, बापू की माने नहीं, कहते हैं । आहा...हा...! कहते हैं, अतीन्द्रिय सुख की रुचिवाले (जीव ) को इन्द्रिय सुख की रुचि नहीं है, इसलिए इन्द्रिय सुख के सहकारी निमित्तों में उसे मोह नहीं होता है परन्तु इन्द्रिय सुख के जो लोलुपी हैं, उनकी कल्पना में जो अनुकूल लगे हों (उनमें ) – ऐसी कल्पना खड़ी करते हैं कि मानो हमने स्वर्ग को प्राप्त किया, इन्द्रपद को ( प्राप्त किया) - ऐसा संकल्प से खड़ा करते हैं, परन्तु भगवान आत्मा में आनन्द है, उसकी दृष्टि नहीं करते। इस संकल्प से बड़ा स्वर्ग खड़ा करते हैं। अपने मन के संकल्प से ही स्वर्ग की लक्ष्मी प्राप्त कर लेना चाहते हैं। मानो कि अपने को स्वर्ग की लक्ष्मी मिल गयी । ओ...हो... ! स्त्री, पुत्र, पैसा... परन्तु इस ओर दृष्टि नहीं देता। यहाँ आत्मा में केवलज्ञान की लक्ष्मी मिले - ऐसी है । इस प्रकार दृढ़ता करके आत्मा अल्पकाल में केवलज्ञान का स्वामी होगा - ऐसे अतीन्द्रिय आत्मा में रुचिवाले – ऐसी भावना करते हैं परन्तु इस विषय की रुचिवाले को जहाँ सुखबुद्धि पड़ी है, पर में सुखबुद्धि है, उसे आत्मा में सुखबुद्धि कभी होती ही नहीं । शरीर की अनुकूलता, परिवार की अनुकूलता, पैसे की अनुकूलता, कीर्ति की अनुकूलता माननेवाले को आत्मा की सुखबुद्धि नहीं हो सकती। समझ में आया ? ऐसा कहना चाहते हैं। मुझे बाहर की यह अनुकूलता है, बहुत अनुकूलता है । अनुकूलता अर्थात् उसका अर्थ यह कि उसमें सुख माना है, मूढ़ है, वहाँ कहाँ पर में अनुकूलता थी? जो पर की अनुकूलता की रुचि में पड़ा है, उसे अतीन्द्रिय सुख की रुचि नहीं होती है। महा भगवान आत्मा अतीन्द्रियस्वरूप है, उसके प्रेम में यह पर का प्रेम और मोह उसे नहीं होता है । अस्थिरता का जरा होता है, उसकी यहाँ बात नहीं है ।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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