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________________ ४७२ गाथा - ६६ मिलता । मनुष्यों को... यह मनुष्यों की बात की है। कितने ही ऐसे होते हैं कि व्यवहार में इतने फंसे होते हैं कि व्यवहार धर्म के ग्रन्थ पढ़ते हैं, सुनते हैं... अब मनुष्य आये.... मनुष्य धर्म को सुनने के लिए तैयार हुए, सुने परन्तु वे व्यवहार के ग्रन्थों में इतने फँसे कि व्यवहार-धर्म के ग्रन्थों को पढ़ते और सुनते हैं । निश्चय अध्यात्म ग्रन्थ क्या है ? उसे समझने का और सुनने का समय नहीं मिलता । मुमुक्षु - निषेध करनेवाले भी निकले। उत्तर - निषेध करनेवाले (इंकार करे ) । नहीं... नहीं... नहीं... यह अध्यात्म नहीं, अध्यात्म नहीं। यह व्यवहार सुनो, व्यवहार पढ़ो। ज्ञानचन्दजी ! ऐसा चलता है न ? भाई ! नहीं... नहीं... नहीं... । अनेक महान विद्वान (पण्डित) बन जाते हैं; न्याय, व्याकरण, काव्य, पुराण, वैद्यक, ज्योतिष की और पाप-पुण्य का बन्ध करनेवाली क्रियाओं की विशेष चर्चा करते हैं । व्याकरण की करे, शब्दकोश की करे, पुण्य-पाप की चर्चा करे । यह पुण्य ऐसा होता है और यह पुण्य ऐसे होता है परन्तु यह बात तो अनन्त बार की, अब सुन ! नयी बात क्या है, अनन्त काल के जन्म-मरण मिटने की चर्चा नहीं करते, चर्चा करनेवाले नहीं - ऐसा कहते हैं । हैं ? अध्यात्म ग्रन्थों का सूक्ष्मदृष्टि से अभ्यास या विचार नहीं करते। विमलचन्दजी ! यह ठीक है ? ऐ...ई... ! राजमलजी ! दोनों व्यक्ति... बदले हैं या नहीं ? देखा है या नहीं इन्होंने ? अध्यात्म ग्रन्थ को पढ़ने का समय भी नहीं । नहीं... नहीं... नहीं.... व्यवहार करो... व्यवहार करो... व्यवहार पढ़ो... व्यवहार पढ़ो... यह करते-करते हो जायेगा। (व्यवहार) करते-करते धूल में भी नहीं होगा, सुन न ! भगवान आत्मा अध्यात्म की अन्तर की बातों को समझे बिना, अन्तरदृष्टि किये बिना कल्याण तीन काल में है नहीं। उसका निर्विकल्प पता लिये बिना.... आत्मा वस्तु ही निर्विकल्प है, रागरहित - पुण्यरहित-क्रियारहित - मनरहित-संगरहित ऐसा भगवान आत्मा राग से और विकल्प से असंग ऐसे असंग तत्त्व को अध्यात्मग्रन्थ से सुनकर मनन करनेवाले जीव बहुत दुर्लभ हैं।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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