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________________ ४६२ गाथा-६५ आत्मा में बसता है – ऐसा भगवान कहते हैं। दूसरे कहें, जरा भी नहीं बसता। अरे...! क्या किया तूने? आत्मा नहीं? राग में बसे, पुण्य-पाप में बसे और वह समकिती व श्रावक? समझ में आया? आहा...हा...! कहते हैं कि, भगवान जिनेन्द्रदेव ऐसा कहते हैं। समझ में आया? कहीं रस नहीं पड़ता – ऐसा धर्मी को लगता है। कहीं रस नहीं पड़ता। आत्मा के रस के समक्ष कहीं सूझ नहीं पड़ती। समझ में आया? संसार में भी जब कोई लत (व्यसन) चढ़े, तब उसे नहीं होता? जो लत चढ़े, उसमें दूसरी सूझ नहीं पड़ती। यह एक ही पूरे दिन धन्धा, धन्धा, धन्धा । ऐ...ई...! धन्धा, दूसरी सूझ नहीं पड़ती। मर जाएँगे तो इसमें मरेंगे, कहते हैं। हैं? आहा...हा...! गृहस्थाश्रम में आत्मा है या नहीं? या राग ने सारा आत्मा ले लिया? विकार ने पूरा आत्मा ले लिया? लूट गया? आहा... हा...! परमात्मा शुद्ध चैतन्य प्रभु की जहाँ अन्तर रुचि, दृष्टि और एकाग्रता हुई (तो) गृहस्थ हो.... कम-ज्यादा रमणता का प्रश्न नहीं.... आत्मा में ही बसता है – ऐसा यहाँ कहते हैं। भाई! देखो! भाषा ऐसी है यह। ना मत कर, ना मत कर। ना करने से आत्मा नहीं रहता। समझ में आया? भगवान सचिदानन्द प्रभु – जिसे अन्तर में, रुचि में जमा, परिणमन हुआ कहते हैं कि वह तो आत्मा में बसा है - ऐसा जिनवर कहते हैं। तू कौन कहनेवाला? कि गृहस्थाश्रम में आत्मा का ज्ञान और आत्मा में बसना नहीं होता। आहा...हा...! समझ में आया? यह जिनवर के सामने बड़ा शत्रु जगा है, अर्थात् कि आत्मा का शत्रु है कि आत्मा नहीं हो। सम्यग्दृष्टि आत्मा में नहीं होवे (तो) वह कहाँ होगा? विकार में होगा? विकार में तो अनादि का था, तब बदला क्या? समझ में आया? शुभ और अशुभराग में तो अनादि का था, वह तो बहिर्बुद्धि थी। अब, अन्तर्बुद्धि हुई तो हुआ क्या? कुछ हुआ या फेरफार हुआ या नहीं? बहिरात्मा में पुण्य-पाप के भाव मेरे और उनमें पड़ा हुआ यह मैं; आत्मा और वे मुझे लाभदायक – यह बहिर्बुद्धि तो अनादि की थी। अब इसमें बसा है और अन्तरात्मा भी इसमें बसा है – तो अन्तरात्मा हुआ किस प्रकार ? समझ में आया? कहो, रतिभाई! आहा...हा...! कहते हैं कि सागारु वि अणागारु कुदि समझे न? गृहस्थ हो या कोई भी मुनि
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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