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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) यदि परभाव को तजि मुनि, जाने आप से आप । केवलज्ञान स्वरूप लहि, नाश करे भवताप ॥ ४४१ अन्वयार्थ – (जे मुणि परभाव चएवि अप्पा अप्प मुणंति) जो मुनिराज परभावों का त्याग कर आत्मा के द्वारा आत्मा का अनुभव करते हैं (ते केवल-णाणसरूव लइ (लहि ) संसारू मुचंति) वे केवलज्ञान सहित अपने स्वभाव को झलका कर संसार से छूट जाते हैं। ✰✰✰ परभाव का त्याग संसारत्याग का कारण है । जे परभाव चएवि मुणि अप्पा अप्प मुणंति । केवल-णाण-सरूव ( लहि ? ) ते संसारूमुचंति ॥ ६३ ॥ ओहो....हो... ! अकेला मक्खन ही डाला है। जो कोई धर्मात्मा परभावों का त्याग करके.... विकल्प जो शुभाशुभराग, उस शुभ और अशुभराग को छोड़कर आत्मा अनुभव करता है..... देखो ! त्यागधर्म की आवश्यकता इसमें बतायी है। त्यागधर्म अर्थात् इस विकल्प का त्याग। परभाव विकार पुण्य और पाप दोनों परभाव हैं। शुभराग, वह परभाव है, उसका त्याग (और) स्वरूप का अन्तर ग्रहण.... है न ? 'अप्पा अप्प मुति' आत्मा, आत्मा को जाने । विकारभाव को छोड़कर, भगवान आत्मा, आत्मा को जाने, कहते हैं। वह केवलज्ञानसहित अपने स्वभाव को प्रगट करके संसार से छूट जाता है। समझ में आया ? उसका त्याग करके वीतरागभाव में रमणता करने से संवर और निर्जरा का लाभ होता है । लो ! इत्यादि बहुत बात की है । यहाँ तो फिर इन्होंने कहा है साधक को पहले तो मिथ्यात्वभाव का त्याग करना चाहिए। उसके लिए बाह्य कारण ऐसे रागी, द्वेषी देव, परिग्रहधारी, आत्मज्ञानरहित साधु और एकान्त कथन करनेवाले शास्त्रों की भक्ति छोड़ना .... ऐसा कहते हैं । छोड़ने का आया न ? परभाव छोड़ने का ... इसलिए यह डाला है । छोड़ने में पहले कुदेव - कुगुरु-कुशास्त्र की श्रद्धा छोड़ो, उसकी
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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