SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 436
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३६ गाथा - ६२ है) । समझ में आया ? वह पामर नहीं । उस भगवान प्रभु को जिसने स्पर्श किया, उसकी पर्याय में वीर्य की जागृतता, वीर्यपना जागृत हुआ है। वीर्यपना जागा है। समझ में आया ? अल्प काल में आस्रव के विकल्पों को तोड़कर निर्विकल्प परमात्मा को प्राप्त करे - ऐसा उसका वीर्य है, यह कहते हैं । तीसरा फल थोड़ा लिया.... पाप कर्म का अनुभाग घटावे.... पापकर्म का रस घट जाये, पुण्यकर्म का अनुभाग बढ़ जाये । लो ! समझ में आया ? चौथा फल आयुकर्म के अतिरिक्त समस्त कर्मों की स्थिति .... घटती जाती है । सहज अनुभव होने पर भगवान आत्मा अपने अक्षय स्थितिवन्त भगवान आत्मा के अनुभव से अनुभव होने पर पुण्य का रस बढ़ता है, पाप रस घटता है, समझे न ? और आयु की स्थिति भी कम बाँधता है, अधिक नहीं बाँधता यह नरक आदि की और स्वर्ग की भी अमुक बाँधता है । आयु कर्म के अतिरिक्त समस्त कर्मों की स्थिति... कम बाँधता है। आयु की एक अधिक बाँधता है परन्तु दूसरी स्थिति तो बहुत ही कम (बाँधता है) क्योंकि मोक्षमार्ग आया उसे संसार की स्थिति कैसे बढ़े ? भगवान आत्मा अपना मोक्ष के छूटने के मार्ग में चढ़ा, उसे छूटने की स्थिति कैसे बढ़े ? वह कर्म तो अब छूटने योग्य है, उनकी स्थिति बहुत ही अल्प रहती है, विशेष नहीं होती है। यह यदि केवलज्ञान उत्पन्न करने योग्य ध्यान न हो सके तो फिर मनुष्य, देवगति में जाकर उत्तम देव होता है । यदि सम्यग्दर्शन का प्रकाश टिक रहा हो तो..... टिक रहा हो, क्या ? इसका यह बना, आत्मा है, और बना रहे वह कहाँ नहीं बने ? समझ में आया ? यदि सम्यग्दर्शन का प्रकाश टिक रहा हो तो फिर प्रत्येक जन्म में आत्मानुभव करके अपनी योग्यता बढ़ाया करता है । एकाध, दो भव करने पर भी, राग की मन्दता है, पुरुषार्थ की कमी है तो उसमें आगे बढ़ने से अनुभव बढ़ता जाता है। कहो, समझ में आया ? अन्त में आठों कर्मों का क्षय करके, चार का ( क्षय होने पर) अरहन्त परमात्मा होता है, ज्ञानावरणीयादि नाश होकर सर्वज्ञ होता है (और) अघाति का क्षय होने पर सिद्ध होता है। लो, क्या फल नहीं होता ? यहाँ तक फल होता है - ऐसा कहते हैं। समझ में आया ?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy