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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) अन्तरात्मा.... दूसरा अन्तरात्मा परमपूर्ण हो गया । अन्दर वस्तु जो परमात्मशक्ति है और इस अन्तरात्मा की सभी पर्यायें ये भी सब शक्तियाँ अन्दर है और बहिरात्मा की समस्त पर्यायों की भी शक्तियाँ अन्दर पड़ी हैं । सब पड़ी है, एक समय में सब पड़ी है। उसमें इसने आत्मा राग से, पुण्य से भिन्न निर्विकल्प शुद्ध परमात्मा का स्वरूप उसे पर्याय प्रगट नहीं हुआ परन्तु वस्तु से ऐसा है। ऐसा जिसने श्रद्धा-ज्ञान से ध्यान करके निर्णय किया है, उसे वर्तमान दशा की निर्मलता के, अपूर्ण निर्मलता की अपेक्षा उसे अन्तरात्मा कहा जाता है। समझ में आया ? ४१ बहिरप्पु, बहिरप्पु यह बाहर में आत्मा माननेवाला । अन्तर में भले परमात्म शक्ति, अन्तरात्म शक्ति, बहिरात्म शक्ति सब पड़ी है। समझ में आया ? परन्तु जो वर्तमान अवस्था में बाहर, बाहर.... भगवान पूर्ण शुद्ध निर्मलानन्द है, उसके अतिरिक्त के दया, दान, व्रत, भक्ति के परिणाम, देहादि की क्रिया को अपनी माननेवाला, उसमें से हित माननेवाला..... जिससे हित माने उसे भिन्न नहीं मान सकता, उसे बहिरात्मा कहा जाता है । यहाँ ऐसा नहीं कहा कि इतनी क्रिया नहीं करता, इसलिए वह अन्तरात्मा है ..... बाहर की, और इतनी क्रिया अन्दर राग की करता है, इसलिए बहिरात्मा है । यह रागादि की क्रिया दया, दान, व्रत के परिणाम जो आस्रवतत्त्व है, वह बहिर तत्त्व है, उसे आत्मा का हित (करनेवाला है - ऐसा ) माननेवाला बहिरात्मा है। समझ में आया ? बहिरप्पु, बहिरात्मा.... अथवा किसी भी कर्मजन्य उपाधि के संसर्ग में आकर कहीं भी उल्लसित वीर्य से, उल्लसित वीर्य से उत्साह करना, वह बहिरात्मा है । क्या कहा? भगवान आत्मा को आनन्दमूर्ति के उल्लसित वीर्य का आदर छोड़कर, बाहर की किसी भी कर्मजन्य उपाधिभाव या संयोग किसी भी संसर्ग में आने पर उसमें उल्लसितरूप से अन्दर वीर्य उल्लसित हो जाये... यह... ! आहा... हा...! ऐसे पर में विस्मयता हो उसे बहिरात्मा कहा जाता है। समझ में आया ? आहा... हा...! अन्तर के आनन्द से प्रसन्न न हुआ; वह तो बाहर के शुभाशुभभाव और उसके फल, उसके संयोग जो बाह्य, आत्मा के स्वभाव से बाहर वर्तते हैं, बाहर में प्रसन्न हुआ, उन्हें ही आत्मापना माना, उसे बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि कहते हैं । आहा...हा...!
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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