SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) जहाँ हो, वहाँ जाननेवाला... जाननेवाला... जाननेवाला... जाननेवाला... जाननेवाला... जाननेवाला.... ऐसा भगवान सर्व व्यापक आत्मा, वह चाहे नरक के संयोग की दशा में हो, स्वर्ग के अनुकूल की दशा में हो, शरीर का तीव्रतम (रोग) हो, रोग से शरीर सड़ता हो, उसे कुछ छूता या अड़ता नहीं है । आहा... हा...! ऐसा आकाश की तरह आत्मा से अत्यन्त असंग है ऐसी दृष्टि, अनुभव करने से उसे परमब्रह्म परमात्मा अपना स्वरूप प्राप्त करता है और क्रम से केवलज्ञान पाता है, यह उसका उपाय है । कहो, समझ में आया इसमें ? ४०५ जिसमें अनन्त जीव, अनन्त पुद्गल उनकी परिणति से आकाश में कोई विकार या दोष नहीं होता.... आता है ? कोई गाली दे, तलवार से मार डाले, खून करे, उसमें आकाश को कुछ है ? आकाश उससे बिल्कुल शून्य है ... उनसे बिल्कुल शून्य निर्लेप, निर्विकार बना रहता है, कभी भी उनके साथ तन्मय नहीं होता। छठी गाथा में कहा है न ? ज्ञायक तो ज्ञायकभाव ही रहा है, कभी जड़ नहीं हुआ। जड़ अर्थात् विकल्परूप नहीं हुआ, ऐसा । विकल्प, अचेतन है । चैतन्य के प्रकाश का तेज - सत्व, वह अचेतन विकल्परूप कब होगा ? अकेला चैतन्य का रसकन्द शाश्वत् सत्व, उसे विकल्प जो अचेतन जाति है, उसरूप ज्ञायक कभी नहीं होता । चैतन्य मिटकर तीन काल-तीन लोक में जड़ नहीं होता - ऐसे आत्मा को अन्तर्दृष्टि और ज्ञान में लेना, वह परमात्मपद प्राप्ति का उपाय है। यह योगसार है, देखो ! ऐसा हूँ, आकाश के समान । बाद की गाथा में यह कहेंगे, आकाश जड़ है और यह चैतन्य है इतना अन्तर है, बाद की गाथा में कहते हैं। समझ में आया ? ५९ में कहते हैं न? यहाँ तो आकाश की उपमा दी है न ? जेहउ सुद्ध अयासु जिय तेहउ अप्पा वुत्तु । आयासु वि जडु जाणि जिय अप्पा चेयणुवंतु ॥ ५९ ॥ यह बाद में आयेगी। इसके साथ सन्धि करते हैं न ? समझ में आया ? आकाश की सत्ता अलग और आकाश में रहनेवाले पदार्थ की सत्ता अलग है न ? या एक है ? यह स्त्री, पुत्र और राग की सत्ता तथा आत्मा की सत्ता एक होगी या अलग ? हैं ? सब इकट्ठे रहे होंगे
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy