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________________ ४०२ गाथा-५८ से पर जानता है ( सो परू बंभु लहु पावइ) वही परम ब्रह्मा स्वरूप का अनुभव करता है (केवल पयासु करइ) व केवलज्ञान का प्रकाश करता है। अब कहते हैं - देहादिरूप मैं नहीं हूँ – यही ज्ञान, मोक्ष का बीज है। लो! यह ज्ञान, मोक्ष का बीज है, दुनिया का कोई ज्ञान, मोक्ष का बीज नहीं है। देहादि मैं नहीं – 'देहादि' शब्द है न? (अर्थात्) देह, वाणी, मन, राग, द्वेष, कल्पना – यह इत्यादि मैं नहीं हूँ। देहादिउ जो परू मुणइ जेहउ सुण्णु अयासु। सो लहु पावइ बंभु परू केवलु करइ पयासु॥५८॥ जैसे शून्य आकाश.... इस आकाश को किसी भी पदार्थ का सम्बन्ध दिखने पर भी, इसे सम्बन्ध नहीं है। उसी प्रकार भगवान आत्मा देह, वाणी, कर्म, यह माता-पिता, कुटुम्ब-कबीला, बाहर का क्षेत्र, काल का संयोग दिखता है परन्तु उस संयोग में आत्मा है ही नहीं, प्रत्येक संयोग से आत्मा निराला है। जैसे आकाश व्यापक है, निर्मल है; उसमें सभी पदार्थ इकटे पड़े दिखते हैं, तथापि आकाश उससे भिन्न है। आकाश कभी उन परपदार्थरूप हुआ नहीं है और परपदार्थ, आकाशरूप हुए नहीं हैं। कहो, समझ में आया? आकाश परपदार्थों के सम्बन्धरहित है, असंग.... अकेला है; वैसे ही भगवान आत्मा अभी और त्रिकाल, राग के सम्बन्ध में, माता-पिता, कुटुम्ब, स्वजन-बैरी-शत्रु.... समझ में आया? कर्म, उसके मध्य में रहा हुआ तत्त्व, तथापि उनके साथ से बिल्कुल भिन्न है, बिल्कुल भिन्न है। कुछ लेना या देना... पर के साथ सम्बन्ध नहीं है। कहो, समझ में आया? आकाश में इतने-इतने बादल होते हैं, कितने पंच रंगी... मूसलधार वर्षा पड़े, आकाश को कुछ लेना-देना नहीं। इसी प्रकार भगवान आत्मा आकाश के समान निर्लेप असंग और भिन्न है, उसे भिन्न पदार्थ जितने-जितने कहे जाते हैं - दया, दान के विकल्प से लेकर जितने पर (पदार्थ), उन्हें और इसे कुछ सम्बन्ध नहीं है। ओहो...हो...! ऐसे आत्मा को अन्दर अनुभव करने का नाम सम्यग्दर्शन और ज्ञान है।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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