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________________ ३८४ गाथा-५६ कहते हैं कि जिसने आत्मा को प्रत्यक्ष जाना, उसने आत्मा को जाना कहलाता है। समझ में आया? 'जे णवि-मण्णहिं जीव फुडु' वह संसार से नहीं छूटता – ऐसा जिननाथ कहते हैं। क्या कहते हैं ? 'जिण णाहहं उत्तिया' है न? जिननाथ... ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। भगवान त्रिलोकनाथ परमेश्वर वीतरागदेव ऐसा फरमाते हैं - जिसने आत्मा को प्रत्यक्ष नहीं जाना, वह संसार से नहीं छूटेगा। समझ में आया? आहा...हा...! इस प्रकार ज्ञान से ज्ञान को जानकर वेदन करे.... राग नहीं, मन नहीं, शरीर नहीं, वाणी नहीं, गुरु नहीं, कोई नहीं। उसने शास्त्र के धारे हुए धारणा किये भावना के बोल, वे भी नहीं। समझ में आया? ऐसा भगवान आत्मा 'फुडु' अर्थात् स्पष्ट स्वयं, स्वयं से नहीं जाने. स्वयं अपने से प्रत्यक्ष नहीं जाने.... 'जिण-णाहहँ उत्तिया णउ संसार मचंति' जिनेन्द्रदेव कहते हैं कि वह संसार मिथ्यात्वादि से छूटेगा नहीं। संसार शब्द से मिथ्यात्व, हाँ! उस मिथ्यात्व से नहीं छूटेगा।आहा...हा... ! ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं। है या नहीं? ऐ... शशीभाई! आहा...हा...! भगवान आत्मा....! देखो तो सही, योगसार! योगसार अर्थात् प्रभु आत्मा निर्विकल्पस्वरूप से, निर्विकल्प वेदन से अपने को न जाने तो कहते हैं कि, इस विकल्प से जाना और मन से जाना, शास्त्र से जाना वह जीव संसार से मुक्त नहीं होगा। आहा...हा...! क्या बात...! बात तो ऐसी ही होगी न? समझ में आया? ऐसा 'जिण उत्तिया' अनेक जिनेन्द्रों की वाणी में ऐसा आया है। इन्हें लिखना पड़ा – 'जिण उत्तिया' आचार्य को लिखना पड़ा, भाई! ऐसा तो वीतरागदेव कहते हैं, हाँ! परमेश्वर केवलज्ञानी तीन लोक के नाथ की वाणी में इच्छा बिना ध्वनि आयी, उस ध्वनि में ऐसा आया था कि जो आत्मा को प्रत्यक्ष.... चौथे गुणस्थान से, हाँ! आहा...हा...! रागरहित भगवान आत्मा को प्रत्यक्ष न जाने, वह संसार-मिथ्यात्वादि से नहीं छूटेगा। समझ में आया? शशीभाई ! आहा...हा...! संसार शब्द से मिथ्यात्व, वह संसार है, हाँ! मिथ्यात्व गया, संसार नहीं रहता। आहा...हा...! जो स्पष्टरूप से अपने आत्मा को नहीं जानता.... एक बात। और जो अपने आत्मा का अनुभव नहीं करता.... फिर स्थिरता की विशेष बात ली है। प्रत्यक्ष जानकर फिर बारम्बार आत्मा में अनुभव करना; प्रत्यक्ष जानकर फिर स्थिर होना। भगवान आत्मा
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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