SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ३७७ मेरा शुद्ध स्वभाव इन पाँच तत्त्व और सात पदार्थों के व्यवहार से निराला है। भगवान आत्मा का जो व्यवहार, वह पाँच तत्त्व और सात पदार्थों के व्यवहार से अत्यन्त निराला है। पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष से निराला तत्त्व अखण्ड अभेद है। समझ में आया? व्यवहार. समस्त व्यवहार से अर्थात? कर्म शरीर से भिन्न: पण्य-पाप से भिन्न और आत्मा की इस विकारी पर्याय या अविकारी पर्याय से भी भिन्न है। अविकारी पर्याय सद्भूत व्यवहार का विषय है। समझ में आया? यह सब व्यवहार है । गुण-गुणी भेद भी व्यवहार है। भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्य और उसके आश्रित रहनेवाले गुण - ऐसा विकल्प भी व्यवहार है । उस व्यवहार को छोड़ – ऐसा कहते हैं । देखो, समझ में आया? 'अण्णु जि सहु ववहारु' 'सह ववहारु' सर्व व्यवहार । लो! व्यवहाररत्नत्रय तो व्यवहार अन्य है। गुण-गुणी के भेद से भगवान आत्मा अन्दर में विचारता है कि ओ...हो...! इस वस्तु में ऐसे अनन्त गुण रहे हुए हैं, अनन्त आनन्द है – ऐसा जो भेदवाला विकल्प है, वह व्यवहार है। वह व्यवहार भी भगवान आत्मा से अन्य है। समझ में आया? आहा...हा...! समझ में आया? निराला.... नारकी और नारकी आदि के (भेद से) तो भिन्न है। संकल्प-विकल्परूप क्रियाएँ, यह सब मेरे शुद्ध आत्मिक परिणमन से भिन्न है। संकल्प-विकल्प की क्रियाएँ.... सभी आत्मा के संकल्प से-वस्तु से भिन्न है। जगत् का समस्त व्यवहार मन-वचन-काया के योग से अथवा शुभ या अशुभ के उपयोग से चलता है। मेरे शुद्ध उपयोग में और निश्चय आत्मिक प्रदेशों में उनका कोई संयोग नहीं है.... दो बात – मेरे शुद्धभाव में और शुद्ध आत्मप्रदेश में... समझ में आया? प्रदेश डाले हैं न? व्यंजनपर्याय। असंख्य प्रदेश शुद्ध हैं। उन शुद्ध प्रदेशों में यह सब मन-वचन-काया का व्यापार या शुभाशुभभाव, वह मेरे शुद्धभाव में नहीं हैं; वे मेरे शुद्ध असंख्य प्रदेश के क्षेत्र में नहीं हैं। आहा...हा...! यह तो वे कहते हैं - मनवचन-काय की क्रिया, वह धर्म है। उससे निर्जरा होती है - ऐसे लेख आते हैं, लो! ओ...हो...हो...! धर्म के विद्रोही धर्म के नायक हो गये हैं। हैं ? विद्रोही कहा, धर्म के विद्रोही धर्म के नायक हैं – ऐसा दावा करते हैं। हैं? आहा...हा...! जहाँ निर्विकल्प पदार्थ ही प्रभु आत्मा निर्विकल्प आनन्दकन्द है, सच्चिदानन्द का
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy