SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा - ५३ हैं वे एकदम निकाल डालें) । ऐसा यहाँ कहते हैं । आत्मा ज्ञानानन्द प्रभु के भान बिना तेरा यह पठन किस काम का ? और दूसरे को पढ़ाये दूसरे के निकाल छिलके, निकल जाएँगे । समझ में आया ? ३६८ आत्मा ही निश्चय से परमात्मदेव है, उसका अनुभव उन्हें नहीं होता, इसलिए वह भी जड़.... . है । आहा... हा... ! भाषा देखो न ? ये शास्त्र के पढ़नेवाले भी जड़... क्यों ? कि राग और पर का ज्ञान, वह चैतन्य नहीं है । भगवान आत्मा अपने अन्तर्मुख में जाकर चैतन्य का अन्तरज्ञान करे, उसे चैतन्य कहते हैं । आहा... हा.... ! इतनी पुस्तकें इसने बनायीं, अमुक साधु ने इतनी बनायी, दो लाख (पुस्तकें बनायी ) परन्तु धूल... दस लाख बनावे तो वह तो उसने राग किया और जड़ की क्रिया मैंने बनायी - यह तो मिथ्यात्व किया। मैंने पुस्तकें बनायी - यह मान्यता ही मिथ्यादृष्टि की है। हरिप्रसादजी ! पुस्तक बनाना यह... ? समझ में आया ? जिनवाणी पढ़ने का फल निश्चय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति करने का प्रयास है। देखो! जिनवाणी पढ़ने का फल निश्चय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति करने का प्रयास है। इसके लिए ही चारों अनुयोगों के ग्रन्थ पढ़कर शास्त्री विषय जानकर, मुख्यरूप से यह जानना चाहिए कि यह जगत जीवादि छह द्रव्यों का समुदाय है, इससे मेरा तत्त्व पृथक् है । आत्मा और ज्ञान को इसमें से निकाले तो उसने शास्त्र में कहे हुए फल को जाना कहलाये । आत्मा को निश्चय से न जाने तो कुछ इसने जाना नहीं है। यह विशेष कहेंगे..... I ( श्रोता: प्रमाण वचन गुरुदेव !) 108
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy